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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [ २१४] 64 www.kobatirth.org શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ वार संगछरि छियासए पर मेसरु संठउ । चैत्रह तीजह किसिण पक्खि नेमि भुवणहि संठिंउ । ४४ । बहु आयरिहि पयट्ट किय बहु भाउ धरतह | रागुन वद्धर भविय जणहं नेमि तित्थ नमंतह । ४५ । मैंने श्री जयंतविजयजी को आवृ रास की जो नकल भेजी थी उसमें प्राचीन प्रति में 'च' और 'ब' अक्षर की समानता होने के कारण " चहुं " पाठ लिखा था, पर देशाई ने उसे " ब" पढा है अतः बहुत से आचार्य प्रतिष्ठा के समय सम्मिलित थे ऐसा भी हो सकता है । चार आचार्यों ने प्रतिष्ठा की इसके प्रमाण का निर्देश तो हमने भी अपने लेख में किया ही है, उन चारों में एक वर्द्धमानसूरिजी को मानना चाहिये ऐसी हमारी मान्यता है । अर्बुदगिरि प्रबन्ध" कर्मचन्द वंश प्रबन्ध वृत्ति में आता जरूर है पर इससे इसकी रचना १६६५ ? ( गलत है वृत्ति की रचना सं. १६५५ में हुइ हैं ) मान लेना उचित नहीं है । सं. १६२३ की लिखित खरतर पूर्वाचार्यै के प्राकृत प्रबन्ध संग्रह की एक प्रति हरिसागरसूरिजी के पास हमने कलकते में देखी थी उसमें भी यह प्रबन्ध था व जिनविजयजी के पास भी इस प्राकृत प्रबंध संग्रह की सतरहवीं शताब्दी की लिखितं प्रति हमारे अवलोकन में आई है । अतः इस प्रबन्ध का रचनाकाल सं. १६६५ न हो कर प्राचीन ही है । 16 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्द्धमानसूरिजी का स्वर्गवास भी आबू में होने का उल्लेख तेहरवीं शताब्दी के जिनपालोपाध्याय रचित गुर्वावली (जिनपालोपाध्याय संकलित ) में स्पष्ट लिखा है: 39 [वर्ष " ततो वर्द्धमानसूरिः सिद्धान्तविधिना श्री अर्बुदशिखरतीर्थे देवत्वं गतः प्रभावक चरित्र पर्यालोचन पृ. ८६ में लिखा है: वर्द्धमानसूरिना आदेशथी आचार्यपद आपीने तेमने सं. १०८८ मां अभयदेवरि बनाव्या For Private And Personal Use Only क्षमाकल्याणजी रचित पट्टावली में वर्द्धमानसूरिजी का प्रतिष्ठानंतर सं. १०८८ में स्वर्गवास होने का लिखा है । " ततः श्री वर्द्धमानसूरिः सं. १०८८ प्रतिष्ठां कृत्वा प्रान्तेऽनशनं गृहीत्वा स्वर्ग गतः । अन्य प्रायः सभी खरतर पट्टावलीयों में भी वर्द्धमानसूरिजीने विमलयही की प्रतिमा प्रगट की इत्यादि लिखा है, अतएव बर्द्धमानसूरिजी के अविद्यमानता आदिका प्रश्न समुचित प्रतीत नहि होता । हमारे लेख का सारांश यह है कि वर्द्धमानसूरिजी विमलवसही के प्रतिष्ठापक चार आचार्यों में एक थे । धर्मघोषसूरि के नामोल्लेखवाले प्रमाणों से वर्धमानसूरिजी के उल्लेखवाले प्रमाण प्राचीन हैं ।
SR No.521554
Book TitleJain Satyaprakash 1940 01 02 SrNo 54 55
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size24 MB
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