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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
वार संगछरि छियासए पर मेसरु संठउ ।
चैत्रह तीजह किसिण पक्खि नेमि भुवणहि संठिंउ । ४४ । बहु आयरिहि पयट्ट किय बहु भाउ धरतह |
रागुन वद्धर भविय जणहं नेमि तित्थ नमंतह । ४५ ।
मैंने श्री जयंतविजयजी को आवृ रास की जो नकल भेजी थी उसमें प्राचीन प्रति में 'च' और 'ब' अक्षर की समानता होने के कारण " चहुं " पाठ लिखा था, पर देशाई ने उसे " ब" पढा है अतः बहुत से आचार्य प्रतिष्ठा के समय सम्मिलित थे ऐसा भी हो सकता है ।
चार आचार्यों ने प्रतिष्ठा की इसके प्रमाण का निर्देश तो हमने भी अपने लेख में किया ही है, उन चारों में एक वर्द्धमानसूरिजी को मानना चाहिये ऐसी हमारी मान्यता है ।
अर्बुदगिरि प्रबन्ध" कर्मचन्द वंश प्रबन्ध वृत्ति में आता जरूर है पर इससे इसकी रचना १६६५ ? ( गलत है वृत्ति की रचना सं. १६५५ में हुइ हैं ) मान लेना उचित नहीं है । सं. १६२३ की लिखित खरतर पूर्वाचार्यै के प्राकृत प्रबन्ध संग्रह की एक प्रति हरिसागरसूरिजी के पास हमने कलकते में देखी थी उसमें भी यह प्रबन्ध था व जिनविजयजी के पास भी इस प्राकृत प्रबंध संग्रह की सतरहवीं शताब्दी की लिखितं प्रति हमारे अवलोकन में आई है । अतः इस प्रबन्ध का रचनाकाल सं. १६६५ न हो कर प्राचीन ही है ।
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वर्द्धमानसूरिजी का स्वर्गवास भी आबू में होने का उल्लेख तेहरवीं शताब्दी के जिनपालोपाध्याय रचित गुर्वावली (जिनपालोपाध्याय संकलित ) में स्पष्ट लिखा है:
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[वर्ष
" ततो वर्द्धमानसूरिः सिद्धान्तविधिना श्री अर्बुदशिखरतीर्थे देवत्वं गतः प्रभावक चरित्र पर्यालोचन पृ. ८६ में लिखा है:
वर्द्धमानसूरिना आदेशथी आचार्यपद आपीने तेमने सं. १०८८ मां अभयदेवरि बनाव्या
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क्षमाकल्याणजी रचित पट्टावली में वर्द्धमानसूरिजी का प्रतिष्ठानंतर सं. १०८८ में स्वर्गवास होने का लिखा है ।
" ततः श्री वर्द्धमानसूरिः सं. १०८८ प्रतिष्ठां कृत्वा प्रान्तेऽनशनं गृहीत्वा स्वर्ग गतः ।
अन्य प्रायः सभी खरतर पट्टावलीयों में भी वर्द्धमानसूरिजीने विमलयही की प्रतिमा प्रगट की इत्यादि लिखा है, अतएव बर्द्धमानसूरिजी के अविद्यमानता आदिका प्रश्न समुचित प्रतीत नहि होता ।
हमारे लेख का सारांश यह है कि वर्द्धमानसूरिजी विमलवसही के प्रतिष्ठापक चार आचार्यों में एक थे । धर्मघोषसूरि के नामोल्लेखवाले प्रमाणों से वर्धमानसूरिजी के उल्लेखवाले प्रमाण प्राचीन हैं ।