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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૫-૬]વિમલસહી કે પ્રતિષ્ઠાપક મં વધમાનસૂરિજી ભી છે [૧૩] मुनि श्री धर्मघोषसूरि के प्रतिष्ठा करने व मं. विमल को उपदेश देने के सम्बन्ध में जिन जिन ग्रन्थों का नाम निर्देश करते हैं वे सभी प्रमाण हमारे दिये हुवे प्रमाण से पिछे के ही हैं। मुनि श्री लिखते हैं कि विमलवसही के प्रतिष्ठापक धर्म घोषसूरि तपागच्छ के न थे न तपागच्छ की उस समय उत्पत्ति हुई थी अतः सभी प्रमाणों के लेखक तपागच्छोय होने पर भी विश्वासपात्र माने जा सकते हैं, पर विमलवसही के प्रतिष्ठापक खरतरगच्छोय नहीं थे ऐसा निश्चित करने के लिए ऐसा क्यों न किया गया हो ? या नामस्मरण में भी इतने वर्षों पिछे भूल हो सकती है । महाजन वंश मुक्तावलि में कर्मचंद्र के वंशावलियों के नाश करने की बात लिखी है वह ठीक नहीं ज्ञात होती । पर इसके सत्य होने पर भी मुनिश्रीने जो संभावना की है वह तो सर्वथा इतिहासविरुद्ध है, वंशावलि नाश होने पर भी पट्टावलियों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं । पट्टालिये इसके पहेले की लिखि अनेकों उपलब्ध हैं हो। - मूलनायक की मूर्ति बन्न सोने आदि की होने में मतभेद हो सकता है। प्राचीन प्रमाणों में भी मतभेद है, इससे मूल घटना अनतिहासिक नहीं मानी जा सकती। ऐसे सामान्य मतभेद इतिहासमें बहुतसी बातों में मिलते हैं। उद्योतनमुरिजीने सं. ९९४ में सर्वदेवादि ८ आचार्यों को पद दिया लिखा गया है पर इस संवत् का प्रमाण कितना प्राचीन है ? वह देखना चाहिये । वर्द्धमानसृग्जिी का सं० १०८८ में रहना असंभव नहीं है। क्यों कि दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासीयों से जब शास्त्रार्थ हुआ था तो वर्द्धमानसूरिजी सभा में गये थे। यह सं. १०७०-७५ के लगभग की होनी चाहिये । मुनिश्रीने खरतर बिरुद प्राप्ति सं. १०२४ का लिखा पर वह तो बिलकुल असंभव ही है अतएव " चिहुंवीसीहिं' शब्दों से ४४२० ८० माना गया है वह तथ्य के बहुत कुछ सन्निकट है अतः १०२४ की कल्पना कर १०८८ के विद्यमानता में सन्देह करना उचित नहीं है। किसी पट्टावली में कोई घटना नहीं मिले और उससे प्राचीन अनेक प्रमाण उसके पक्षमें हो तो प्राचीन प्रमाणों को ही स्थान मिलेगा अतः यह तर्क भी समीचीन नहीं है । अत उपर्युक्त कारणों से विमलवसही के उपदेशक व प्रतिष्ठापक व मानसूरिजी नहीं थे यह लिखा गया है वह युक्तिसंगत एवं प्रमाण पुरस्सर नहीं है। अब प्रमाणों पर विचार करें:-आबूरास का नाम लेकर जो बात लिखी गई है वह तो कुछ का कुछ कर देना है । घर पाट तो वस्तुणाल तेजपाल कारित लुणवसहि के लिये है । उसका पूर्वापर सम्बध इस प्रकार है:- १सं. १२९५ रचित 'गणधर सार्धशतक बृहदवृत्ति'। For Private And Personal Use Only
SR No.521554
Book TitleJain Satyaprakash 1940 01 02 SrNo 54 55
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size24 MB
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