SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ र सत्य Mara %3 होगा। अब वे अवश्य सहायता करेंगे।" शान्तनु-"निर्धन दीन दुःखी सहधर्मी बन्धुओ की सहायता करना धनि श्रावक का कर्तव्य है क्या?" कुंजी देवो-"धन परिग्रह है, परिग्रह ही पाए है, इसका त्याग करना पुण्य या निर्जरा का हेतु है, और इस प्रकार की भक्ति करना ही सडचा त्याग है। इसके बाद शान्तनु जिनदास के यहाँ चला गया। जिनवास सेठ के घर पहुंच कर शाम्तनु ने वह हार गिरके रखने की अपनी इच्छा प्रगट की और कहा- " सेठजी, मुझे इस हार के एवज में पांच हजार रुपैया चाहिए।" जिनदास ने अपने पुत्र को आदेश दिया--कुंषर, इस हार को सम्भालकर रख और उसके बदले इनको पाँच हजार रुपैया गिन दे।" कुंवर ने हार पहिचान लिया। वह बोल उठा “पिताजी, यह हार तो वही है जो कल खो गया था। इसके बदले में पांच हजार रुपया!" जिनदास ने कहा--"बेटा! ऐसे तो कई हार होते हैं। शान्तनु भाई तो एक श्रीमंत हैं। ऐसे हार इनके यहाँ कई होंगे। रुपैया न होने से ऐसा करना पड़ता है।" ___ और शान्तनु को पांच हजार रुपैया मिल गये। इन रुपैयों से शान्तनु ने व्यापार किया और द्रव्य कमाया। द्रव्य प्राप्त होते ही उसकी खी कुंजी देवी ने व्याज सहित जिनदास का रुपया लौटाने को कहा। शान्तनु जिनदाससेठ के पास आकर बोला " सेठ साहब, यह आपके रुपैया ले लीजिये।" सेठने रुपैया ले कर अपने लडके को हार शान्तनु को वापस दे देने की आज्ञा की। इस समय शाम्तनु बोला--" सेठजी हार आपके पासही रहने दोजिये, आप और मैं इस गुप्त बात को जानते हैं।" जिनदास सेठ शोक प्रदर्शित करते हुए बोले--"भाई, मेरी भयंकर भूल हुई, तुम इस भूल को क्षमा करो।" शान्तनु, चोरी करने की बात याद आते ही अश्रुपात करने लगा। जिनदास सेठने उसे शांत्वना देते हुए, " यदि पैसे की आवश्यकता पड़े तो फिर आना और ले जाना' ऐसा कह विदा किया। कुछ दिनों के पश्चाद् भगवान महावीर स्वामी का उस और शुभागमन हुआ। प्रभु भव्य आत्माओं को तारने लिए धर्मदेशना फरमाने लगे। यहाँ दो गृहस्थ प्रायश्चित्त लेने उठे। एक कहता है मैंने सहधर्मी भाई की चोरी की। दूसरे ने कहा द्रव्य होते हुए भी मैंने सहधर्मी भाई की सहायता न की। धन्य कुंजी देवी, धन्य जिनदास सेठ, धन्य शान्तनु और धन्य जैनधर्म ! For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.521544
Book TitleJain Satyaprakash 1939 03 SrNo 44
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1939
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size862 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy