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________________ *& <,] સહર્પી [ ४७ ] है | अतः वह बिना चोरी कीप नहीं मानेगा। कुंजी देवीने शान्तनु से कहा यदि तुम्हारी इच्छा चोरी ही करने की है, तो किसी सहधर्मी के यहां करना । शान्तनु ने इस बातको स्वीकार कर ली । शान्तनु संध्या समय उपाश्रय में गया और जिनदास सेठ के निकट अपना आसन बिछा प्रतिक्रमण करने लगा । प्रतिक्रमण संपूर्ण होने के पूर्व ही शान्तनु जिनदास सेठ के जेबसे सात हजार का कीमती मोतियों का हार निकाल चलता बना । I जिनदास सेठ प्रतिक्रमण करके उठे और अपनी जेब में हाथ डाला तो मालूम हुआ कि हार गायब है । सेठ चिंताग्रस्त होकर सोचने लगे । अन्तमें उन्हे मालूम हुआ कि सबसे प्रथम शान्तनु ही गया है, वही हार ले गया होगा । शान्तनु के पूर्वज कुलवान, धनवान और दानी थे, किन्तु इस समय उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। सेठने दीर्घ दृष्टि से विचार किया कि, एक सहधर्मी के नाते उसकी सहायता करना मेरा कर्त्तव्य था; किन्तु खेद है कि मैं अपने कर्तव्य से चूका इसी लिए उसे चोरी करने को आवश्यकता हुई। प्रकृतिने मेरी भूल सुधारने के लिए शान्तनु को ऐसा मार्ग सुझाया, ऐसा विचार करते हुए सेठ घर पर पहुँचे । दूसरे दिन प्रातःकाल शान्तनु ने अपनी खी कुंजी देवी को उस हार की कथा सुनाई जो जिनदास की चोरी करके वह लाया था । कुंजी देवी ने कहा “बहुत अच्छा, अब यह हार जिनदास सेठ के rai firat रख रुपैया ले आओ" । शान्तनु ने उत्तर दिया “किन्तु हार तो उन्ही का है, यदि पहिचान लेगा तो गिरफतार करा देगा" 16 पहचान तो अवश्य लेंगे, परन्तु गिरफतार नहीं करावेंगे।' कुंनी देवी ने विलक्षण बात कही । "" कारण ? " शान्तनु की जिज्ञासा जाग्रत हो उठी । 68 वह एक सच्चा भावक है । " कुंजी देवी ने स्वस्थपन से जवाब दिया। "" क्या भावक अपने अपराधी को क्षमा कर देता है ? शान्तनु की उलझन सीमातीत होती जाती थी । श्रावक अपने अपराधी को अवश्य दंड देता है, किन्तु वह तुम्हें दंड नहीं देगा ।" कुंजी ने फिर भी उसी स्वस्थपनसे कहा । 66 66 ܕܕ कारण १ " अब भी शान्तनु कुछ नहीं समज सका । उससे सहधर्मी बन्धु की सहायता न करने की भूल होने से कुंजी देवी ने कहा । C 46 इस भूल को समझ गए होंगे ? " शान्तनु- क्या वे कुंजीदेवी - " निःसंदेह सहायता न करने पर उनको खेद भी हुआ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.521544
Book TitleJain Satyaprakash 1939 03 SrNo 44
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1939
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size862 KB
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