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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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दोहराते हुए लिखा गया है कि प्रशस्ति से एक बात यह भी ज्ञात होती है कि उन की दीक्षा देनेवाले श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी ही हैं। पर यह बात बिना विशेष सोचे, प्रशस्ति के नामसे लिखी गई हैं। प्रशस्ति में न तो उनका लुंपकगच्छ के आचार्य होने का लिखा है और न श्रीहीरविजयसूरिजी से दीक्षा लेनेका भी। और न यह संभाव्य भी है। पंन्यासजी महाराजने दी हुई परंपरा से भी स्पष्ट है कि वे श्रीहीरविजयसरिजी से ५-६ मंबर में हैं अतः श्रीहीरविजयसूरिजी उन्हें दीक्षा कैसे दे सकते थे ? श्रीहीरविजयसूरिजी का स्वर्गवास सं. १६५२ में हुआ है और मेघविजयजी का कृतिकाल सं. १७२५ से १७६० तक है। प्रस्तुत 'युक्तिप्रबोध' की प्रशस्तिसे स्पष्ट है की यह ग्रंथ श्रीविजयरत्नमरिजीके राज्य में रचा गया था, जिन श्रीविजयरत्नसरिजी का समय सं. १७३२ से १७७३ तक का है। अतः वे श्रीहीरविजयररिजी के दीक्षित नहीं हो सकते। उनको टुंपक गाछ के अधिपति लिखना-यह श्रीहीरषिजयसरिजी ले सं. १६२९ में लुका मेघऋषिने दीक्षा ली थी उन मेघविजयजी को और इन उपाध्याय मेघविजयजी को एक मान लेने की भूलका परिणाम है। वास्तव में ये दोनों भिन्न भिन्न थे। और युक्तिप्रबोध' ग्रंथ के कर्ता का समय १७६० तकका है। सहधर्मी [ सहधर्मी प्रेमकी एक उम्पल कहानी ]
लेखन-श्रीयुत नथमलजी बनोरिया. भगवान महावीरस्वामी के समय में शान्तनु नामक एक प्रावक था। उसकी स्त्रीका नाम था कुंजी देवी। शाम्तनु के पुरखे कुलवान और धनवान थे, किन्तु समय के चक्रने शान्तनु को दीन हीन दशामें ला छोडा। जो अपने पिता के समय में सोने के कटोरे में दूध पीया करता था, चांदी के खिलोनो से खेला करता था, मुंहसे निकलने के पहले ही जिसको समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो जाया करती थी, षही शान्तनु आज दाने दाने का मोहताज था। ऐसी दशा में उसका चित्त व्यग्र हो इसमें कोई आर्य की बात नहीं।
इस व्यग्रता में शान्तनु कई प्रकार के मनसुबे बांधता और विखेरता था। आखिर एक ही निर्णय पर आया, कि चोरी कर धन प्राप्त करना चाहिये। अपना यह विचार अपनी स्त्री कुंजी देवी से कहे। कुंजी देवी जानती थी कि शान्तनु को व्यापार के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता
१ 'पट्टायली समुचय' पृ. १०९ में इन्हें स. १६५९ में विजयसेनJain Education Internationarरिसे दोधिन लिया है यह ठीक नहीं है।
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