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एक संशोधन
लेखक-श्रीयुत अगरदजी माहटा 'श्री जैन सत्य प्रकाश" के "श्री पर्युषण पर्व विशेषांक' में पंन्यास श्री धर्मविजयजी का 'श्री युक्तिप्रबोधनाटकनो उपक्रम' शीर्षक एक लेख छपा है । उस में कईएक ऐतिहासिक स्खलना दृष्टिगोचर होने से उनका संशोधन किया जाता है।
पनरसीदास १. लेखमें बनारसीदासका समय १६ में सैके का प्रान्त भाग लिखा है, परन्तु यहाँ १७ वां सैका चाहिए, क्योंकि उनका जन्म सं. १६४३ में और स्वर्गवास १७०० के आसपास हुआ है। लेख में अनाम्य स्थानों पर भी सैके की गडबडी है, उसे भी इसी प्रकार सुधार लेना चाहिए। (१६४३ को साल यह १६ धां सैका महीं, किन्तु १७ वां सैका होता है यह क्यालमें रहना चाहिए)
२. अर्वाचीन दिगंबरों की उत्पत्ति बमारस में, आगरा निवासी बनारसीदास से होने का लिखा है, पर बनारस की यात्रार्थ जाने पर उनका नाम बनारसीदास पड़ा इसके अतिरिक्त बनारससे उनका कोई संबंध न था, और न घे आगरे के मूल निवासी ही थे। आगे बनारसी वासका जन्म भी आगरेमें होने का लिखा है पर यह ठिक नहीं है। उनका जन्म जौनपुर में हुआ था और आगरे में तो घे प्रथम सं. १६६७ में व्यापारार्थ गये थे। आगरे में निवास तो उन्होंने सं. १६७५ के लगभग से शेष जीवन में ही किया था। सं. १६७४ तक तो उनकी माता जौनपुरमें ही रहती थी। पेसा बनारसी 'अर्द्धकथानक' से स्पष्ट है। बनारसी दासजी पहिले प्रवेतांबर लघु खरतर गच्छ (जिनप्रभसरि शाखा के अनु. थायी भीमाल थे, इत्यादि विशेष वृत्तांत कषि के स्पयरचित आत्मचरित्र से जानना चाहिए।
उपाध्याय मेघविजयजी १ विशेषांक के पृ. १३२ में उपाध्याय मंघविजयजी को बनारसी दासजी के समकालीन बतलाकर उनका समय भी १६ वीं शताब्दी का बतलाया गया है। पर उपर दिये हुए पाठ से ही सिद्ध होता है कि धे बनारसी दासके समकालीन म होकर बनारसीदासजी के मतके अनुयायिओं के समकालीन थे। मेघविजयजी का समय १८ वीं शताब्दी का है।
२. प्रशस्ति से, प्रस्तुत ग्रंथ प्रणेता पूर्वावस्थामें लुपक गच्छके अधिः पति थे और उन्होंने अनेक साधुओंके साथ श्रीहीरविजयसरिजी से दीक्षा प्रहण को ऐसा लिखा गया है। तथा आगे चलकर फिर इसी बात को
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