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શ્રી જન સત્ય પ્રકારા-વિશેષાંક
महाराजा मम्प्रतिने जैनधर्म का खूब जोरोसे प्रचार किया। श्रीसत्य केतुजी विद्यालङ्कार के शब्दों में-“सम्राट अशोक का पौत्र और कुनाल का पुत्र मम्राट सम्प्रति जैनधर्म का अनुयायी था, इससे अपने इष्ट धर्म के प्रचार के लिये उद्योग किया, बौद्ध इतिहास में जो स्थान अशोक का है सम्प्रति का वही जैन इतिहास में है।"
मम्राट अशोकने जगह जगह बौद्ध मंदिर और मूर्तियों का निर्माण कराया था एवं देश विदेश में बौद्धधर्म के प्रचार के लिये प्रयत्न किया था । महाराजा सम्प्रतिते भी जैनधर्म के लिये वैसे ही महत्वपूर्ण कार्य किये । जैन इतिहास के अनुसार महाराजा सम्प्रतिने सवा लाख नये जैन मंदिर, सवा करोड़ पाषाण प्रतिमाय, ९५००० सर्व धातु प्रतिमायें प्रतिष्ठित कराई, हजारों ही पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया । सम्राट सम्प्रतिने शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिये विशाल संघ निकाला । जिस में ५००० मुनियों सहित कुल ५ लाख यात्री थे । उसमें ही पन्ना, माणिक की मूर्तियां और ५००० सोने चान्दी के चैत्यालय विद्यमान थे ।
कहा जाता है कि वह सम्राट सम्प्रति प्रतिदिन एक नये मंदिर का निर्माण सुन कर भोजन करता था। सम्प्रति द्वारा निर्माण कराई हुई सैकड़ों मूर्तियां अब भी उपलब्ध हैं।
काशीप्रसादजी जायमवाल अपनी भूमिका में लिखते हैं-" अशोक के पोते महाराजा सम्प्रतिने दक्षिण देश मात्र को जैन और आर्य बना डाला"
महाराजा सम्प्रतिने अनार्य देशों में भी जैनधर्म के प्रचार के लिये माधु तैय्यार कराये, और उन्हें भिन्न भिन्न देशों में जैनधर्म के प्रचारार्थ भेजा। इस प्रकार उसके समय में अबिस्तान, : फगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, यूनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लङ्का, आफ्रीका और अमेरिका तक जैनधर्म फैल चुका था। इस लिये सम्राट मम्प्रति को जैनधर्मका प्रचार करनेवाला अंतिम राजर्षि कहा जाता है।
जैनधर्म पर इतनी अनन्य भक्ति और श्रद्धा होने पर भी उस वीरने किसी धर्म के अनुयायी को कष्ट नहीं दिया। प्रजा के सब मनुष्यों को समान भाव से सुख पहुंचाने का प्रयत्न किया, प्रजा के कष्ट निवारण के लिये उसने १७ हजार धर्मशालायें, एक लाख दानशालाय, हज़ारों तालाब, बाग और बगीचे, औषधालय जौर पथिकाश्रम निर्माण कराये ।
सम्राट् सम्प्रतिने अपने समय में एक विशाल जैन सभा करने का विचार आचार्य श्री सुहस्तीसूरि के आगे रखा, और उनकी स्वीकृति के बाद दूर देशांतर तक मुनिराजों और धनिकों को निमंत्रण भेजा। वह सम्मेलन आचार्य श्री सुहस्तीसूरि की अध्यक्षता में हुआ, और उस समय यह प्रस्ताव रखा गया कि जैसे सम्राट चंद्रगुप्त ने बाहर विदेशों में प्रचार
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