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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २८१] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष श्वेताम्बर उसे (ब्रह्मशान्तिको ) बलि पूजा देते हैं । वह श्वेताम्बर संघका आदिम कुलदेव है ॥ " ( गाथा ८७, ९० १३७ से १६० ) अंतिम प्रशस्ति गाथा इस प्रकार है सिरि विमलसेणगणहर - सिस्सो णामेण देवसेणोति ॥ अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ ७०१ ॥ इस ग्रंथ में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्तिके लिये अन्य दिगम्बर ग्रंथोंसे भिन्न ही कल्पना की है। यह तो मानी हुई बात है कि जहां मनमानी कल्पनासे काम लेना हो वहां भिन्नता होती ही है । बृहत् कथाकोश, भद्रबाहुचरित्र, मुनिवंशाभ्युदय, राजावली, पुण्याश्रव कथाकोश वगैरह दिगम्बर ग्रंथो में श्वेताम्बर के लिये भिन्न भिन्न कल्पनायें की हैं तां भ० देवसेनजी भी अपनी स्वतंत्र कल्पना क्यों न करे ? भ० रत्ननंदीने अर्ध फालक मतकी कल्पना कर डाली ?, जब भ० देवसेनजीने यहां शांतिसूरि और ब्रह्मशान्ति देवका मिलान कर दिया और दर्शनसार में श्वेताम्बर मतके आदिम कल्पित आचार्य को नरकगामी लिख मारा। जैसे कि तारूसिऊण पहओ, सीसो सीसेण दीहदंडेण ॥ थविरो धारण मुओ, जाओ सो वितरो देवो ॥ भाव० १५३ ॥ अण्णं च पवमाई, आयमदुट्ठाई मिच्छ सत्थाई ॥ वित्ता अप्पाणं, परिठवियं पढमए णरए || दर्शनसार || दिगम्बर विद्वानके लिये श्वेताम्बरोंको नरक में भेजदेना और ननको मोक्षमें पहुंचादेना बांये हाथका खेल है । १ इसके लिये जैन सत्य प्रकाश वर्ष १ के अंक २, ३ पृष्ट ४७ से ५० और ८७ से ९० तक देखिए । २ भट्टारक रत्ननंदीजीके भद्रबाहु चरित्र में श्वेताम्बरकी उप्तत्तिके जरिये अर्धफालका वगैरह की जो कल्पना की है, उसके लिये दि० विद्वान् श्रीमान् नाथुरामजी प्रेमीजीने लिखा है " वास्तव में अर्द्धफालक नामका कोई संप्रदाय नहीं हुआ । भद्रबाहु चरित्रसे पहलेके किसी भी ग्रंथमें इसका उल्लेख नहीं मिलता । यह भट्टारक रत्ननन्दी की खुदकी ईजाद " है । " 46 ( दर्शनसार प्रस्तावना प्रथमावृत्ति पृ० ६१ ) ३ दिगम्बर समाज मानता है कि- दि० के विपक्ष के वे० आचार्य नरक में गये (दर्शनसार वगैरेह) । देवर्धिगणि क्षमाश्रमण भी नरक में गये । कारण ? ये वस्त्रधारी थे । जबकि चन्द्रगुप्तका मंत्री चाणाक्य मोक्षमें गया । कारण ? वह नग्न था । देखिए तदा ते मुनयो धीरा, शुक्लध्यानेन संस्थिताः ! हत्वा कर्माणि निःशेषं प्राप्ताः सिद्धिं जगद्धितम् ||४२|| For Private And Personal Use Only
SR No.521530
Book TitleJain Satyaprakash 1938 03 SrNo 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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