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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.] દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બને? २८७] वास्तवमें भट्टारकजीने " श्वेताम्बर समाजमें शूलपाणि यक्षकी ब्रह्मशान्तिके रूपमें पूजा होती है " उस बातको बिना सोचे समझे शान्तिसूरि के नाम पर जोड दी है। और श्वेतांबर संघको अधम बतानेकी भरसक कल्पना की है। भट्टारकजीने इस ग्रंथमें “ कमजोरको गुस्सा बहुत " वाली कहावतको चरितार्थ किया है। ऐसी परिस्थितिमें गालियां देना यह स्वाभाविक है एवं क्षम्य व दयनीय है। यह ग्रंथ भाषाशैली, घस्तु, छंदादि और अनेक प्रकारसे सोलहवीं शताब्दीका माना जाता है । __ दर्शनसार-यह ग्रंथ तीर्फ ५१ गाथा प्रमाण मात्र-छोटा होने पर भी दिगम्बर इतिहासमें अनूठा ग्रंथ माना जाता है। इसमें द्रावीड, यापनीय, काष्ठा, माथुर वगैरेह संघका इतिहास है। मराठी भाषांतरवाले दर्शनसार में तो वि० स० १४३० में (१) लोकागच्छकी उत्पत्ति बतलाई है। दि. विद्वान् श्रीयुत नाथुरामजी प्रेमी इतिहास पर प्रकाश डालते हैं कि-" उन सब संघोकी जांच की जानी चाहिये । सबसे पहले द्राविड संघको लीजिए ।+ + इसके बाद यापनीय संघका विचार कीजिए। हमारे पास जो तीन प्रतियाँ हैं उनमें से दोके पाठोंसे तो इसकी उप्तत्तिका समय वि० सं० ७०५, ठहरता है ( गा. २९ ) । यद्यपि यह तीसरी प्रति बहुत ही अशुद्ध है, परन्तु ७०५ से बहुत पहले यापनीय हो चूका था, इस कारण इस पाठको ठीक मानलेनेको जी चाहता है + + आश्चर्य नहीं जो "ग" प्रतिका २०५ संवत् ही ठीक हो । दर्शनसारकी अन्य दो चार प्रतियों के पाठ देखनेसे इसका निश्चय हो जायगा। काष्ठा संघका समय वि० सं० ७५३ बतलाया है, परन्तु यदि काष्ठा संघका स्थापक, जिनसेनके सतीर्थ विनयसेनका शिष्य कुमारसेन ही है, जैसाकि ३०-३३ गाथाओमें बतलाया है, तो अवश्य यह समय ठीक नहीं है। + + + अब रहा माथुर संघ, सो इसे काष्ठासंघस २००वर्ष पिछे अर्थात् वि० सं० ९४३ में हुआ बतलाया है। परन्तु इसमें सबसे बडा संदेह तो यह है कि जब दर्शनसार ९०९ में बना है, जैसाकी ५०वीं गाथासे मालूम होता है तब उसमें आगे ४४ वर्षबाद होनेवाले संघका उल्लेख कैसे किया गया ?xxगरज यह है कि काष्ठा संघ और माथुर संघ इन दोनों ही संघोकी उत्पत्तिके समयमें भूल ब्रह्मचारी नेमिदत्तकृत पं० उदयलाल काशलीवाल प्रकाशित आराधना काथाकोश भा० २ पृ. ३१० से ३१३ " उसने उसे बडी सहनशीलताके साथ सहलिया, और अन्तमें अपनी शुक्ल ध्यान आत्मशक्तिसे कर्मोंका नाश कर सिद्धगति लाभ की" + + “ चाणाक्य आदि निर्मल चारित्र के धारक थे । ये सब मुनि अब सिद्धि गतिमें ही सदा रहेंगे " भाषा पृ० ४६ से ५३ ॥ शांन्तिदेवीने मोक्ष गति पाई (श्रमण शिलालेख) कारण ? यह भी नग्न थी॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521530
Book TitleJain Satyaprakash 1938 03 SrNo 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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