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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દિગબર શાસ્ત્ર કેસે બને? [२०१ पजते विय इत्थीवेदाऽपजत्ति परिहीणो ॥ ३०० ॥ -गोम्मटसार, कर्मकांड, बंधोदय सत्त्वाधिकार गा. ३०० ॥ अर्थ-पर्याप्त पुरुषको स्त्रीवेद और अपर्याप्तत्वसे भिन्न १०० प्रकृतिका उदय है। दिगम्बर समाज दिगम्बर मुनिमें ही छेसे नव गुणस्थानतक अप्राकृतिक याने निंद्य रूपसे स्त्री-वेदोदय होना मानता है, इस भूलको उसे सुधार लेना चाहिये । क्यों कि-इस गाथासे यह निर्विवाद है कि पर्याप्त पुरुषको स्त्रीवेदका उदय होता नहीं है । उदयत्रिभंगीमें भी किसी स्थानपर तीनों वेदवालेको विषम वेदोदय बताया नहीं है। माणुसिणि एत्थी सहिदा तित्थयरा हारपुरिस संदणा ॥ ३०१ ॥ अर्थ-स्त्रीको तीर्थकरत्व, आहार शरीर, पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उदय नहीं है याने पर्याप्त स्त्रीको अपर्याप्तत्व और तीर्थकरत्वादिसे भिन्न प्रकृतिका उदय होता है । । छठे गुणस्थानमें नीच गोत्र और अयशकीर्तिका उदय नहीं है, सातवे गुणस्थानमें छे संहननका उदय है, आठवे गुणस्थानमें अंतके तीन संहननोंका उदय नहीं है, नवम गुणस्थानमें तीनों वेदका उदय नहीं है और दशवें से चौदहवें गुणस्थानकतक तीनों वेदका उदय नहीं है। अनिवृत्तिगुणस्थानमें मैथुन विच्छेद होता है। जीवकांड गाथा-७०१॥ उपर लिखित क्रमसे स्पष्ट है कि-तीनों वेदवाले और उनके नोकर्मरूप तीनों लींगवाले जीव निवृत्ति याने नवम गुणस्थान तक जा सकते हैं। तत्पश्चात् तीनों वेदका विच्छेद होता है, किन्तु किसी लींगका विच्छेद होता नहीं है । अतः स्त्री, पुरुष और नपुंसक इन तीनों लींगवाले जीव आगे बढ़ कर चौदहवे गुणस्थानको प्राप्त कर सकते हैं। माणुस्सिणी पमत्तविरदे आहारदुगं तु णत्थी णिय मेण ॥ अवगय वेदे मणुसिणि संण्णा भूतगदिभाऽऽसेज ॥७१४ ॥ अर्थ-यह निर्णित है कि स्त्रीको छठे गुणस्थानमें कभी आहारद्विक होता नहीं है । और स्त्रीओंको स्त्रीवेदका अभाव होने के बाद "श्री" ___ * आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण इत्यादि दिगम्बर आर्ष ग्रंथों में स्त्री दीक्षाके अनेक पाठ हैं जिनकी यादी गत प्रकरणमें छप चुकी है। इन्द्रनंदीकृत छेदपींडमें भी छठे व सातवें दोनों गुणस्थानमें साधु तथा साध्वीका होना मानकर प्रायश्चित्त बताया है। जैसे कि मूलुत्तरगुणधारी, पमादसहिदो पमादरहिदो य । एकेको वि थिरा-थिर भेदेणं होइ दुवियप्पो ॥२१॥ जं संमणाणं वुत्तं, पायच्छित्तं तह जमायरणम् ।। तेसिं चेव पउत्त, तं समणीण पि णायव्वं ॥२८९ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521528
Book TitleJain Satyaprakash 1938 01 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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