________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[२००]
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
। वास्तवमें दिगम्बर इतिहास के अनुसार वी०नि० सं०६८३ के पश्चात् कोई पूर्ववेदी, उंगवेदी या आचारांगवेदी थे ही नहीं अतः वीर नि० सं० ६८३ के बाद में जो ग्रन्थ बने उन सभी की जड श्वेताम्बर मान्य आगम ही हैं। मैं पहलेके प्रकरणमें भी लिख चुका हूं कि दिगम्बरके आदिम शास्त्र षट्रखंड आगमके प्रणेता आ० धरसेन भी श्वे० आचार्य ही हैं।
आ० नेमिचंद्रजीने ग्रन्थ-निर्माणमें श्वेताम्बर साहित्यको ही नहीं किन्तु कुछ श्वेताम्बरीय तत्त्वोंको भी अपनाया है।
गुण के जरिये वस्त्र धारी पुरुष भी प्रमत्त और अप्रमत्त गुणके अधिकारी हैं और स्त्री मोक्षकी अधिकारिणी है, ये मान्यताएं आपके वचनमें भी ज्योंकी त्यों संगृहीत हैं। देखिए
सापके गुणस्थान के वर्णन के प्रमाणसे दिगम्बर मानते हैं कि-"पंचमगुणस्थानवी जीव भावनाके बलसे एकदम सातवे गुणस्थानमें पहुंच जाता है और बाद में ही छठे गुणस्थान में आता है।" कहने की आवश्यकता नहीं है कि-पंचमगुणस्थानवाला जीव वस्त्रधारी होता है वही गृहस्थ द्रव्य श्रमणलिंगके बिना ही भावसाधु बन जाता है।
आपने गोम्मटसारके जीवकांड में आलापाधिकारकी गाथा ७१३ के उत्तरार्धमें स्त्रीके लीये चौदा गुणस्थानक फरमाये हैं, माने स्त्रीमोक्ष माना है। जिसका क्रम विकास कुछ नीम्न प्रकार है:
सामान्यतया मनुष्यगतिमें आठों कौकी क्रमशः ५, ९, २, २८, १, ५०, २, और ५, याने १२२ प्रकृतिमें से कुल १०२ प्रकृतिका उदय होता है । इनमें पर्याप्त अपर्याप्त और तीन वेद इत्यादि शामिल हैं। तीनों वेद ये मोहनीय कर्मकी प्रकृति हैं और पुरुषादिकी देहरचना यह नामकर्मके अंतर्गत है । औदारिकके अंगोपांगादि तीन भेद हैं, इनमें मूकता, अंधता इत्यादि पाये जाते हैं वैसे ही लींगभेद भी पाये जाते हैं, जो द्रव्य वेद नहीं है किन्तु नोकर्म द्रव्य है । भेसका दही नीद्राका नोकर्म है इसी प्रकार तीनो लोंग क्रमशः तीनों वेदके नोकर्म द्रव्य हैं । “थीसंढसरीरं ताणं णोकम्म व्यकम्मं तु " ॥ ७६ ॥
-गोम्मटसार कर्मकांडअधिकार १, गा. ७६ ॥ अर्थ-स्त्री, पुरुष और नपुंसकका शरीर उसका नोकर्म द्रव्य है। ___ श्री तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदका विवरण दिया है, जब कि द्रव्यवेद और भाववेदका नाम निशान भी नहीं है । फिर भी वेदके ऐसे भेद मानना यह नितान्त मनमानी कल्पना ही है । दिगम्बर समाज इस कल्पनाके अधीन होकर स्त्रीको पांचवे गुणस्थानकसे अधिक आत्मविकास होने का निषेध करता है।
For Private And Personal Use Only