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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१५३
२७०
श्राद्धविधि-मरणने शरण थयेला मातपितादिने उद्देशीने करवामां आवे छे. आमां जुदी जुदी जातना मांस भक्षणथी फलनी विशेषताओ बतावी छे.
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु । उरभ्रेणेह चतुरः, शकुनेन तु पञ्च वै ॥ मनुस्मृति, अ० ३, २६८ षण्मासांश्छागमांसेन, पार्वतीयेन सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥
२६९ दश मासांस्तु तृप्यन्ति, वराहमहिषामिषैः । कूर्मशशकमांसेन, मासानेकादशैव तु ॥ संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु । वार्षीणस्य तु मांसेन, तृप्तिादशवार्षिकी ॥
२७१ श्राद्ध क्रियामां माछलाना मांसनुं भक्षण करवाथी स्वर्गस्थ पूर्वजोने बे महीना सुधी तृप्ति मळे छे, ए रीते हरिणना मांसथी ३ मास, घेटाना मांसथी ४ मास, पक्षीओना मांसथी ५ मास, बकरना मांसथी ६ मास, धोळा चांदावाळा मृगलाना मांसथी ७ मास, श्याम मृगलाना मांसथी ८ मास, रुरु मृगलाना मांसथी ९ मास, भूड तथा पाडाना मांसथी १० मास, काचबाना अने सललाना मांसथी ११ मास, गायना दुधथी तथा क्षीरना भक्षणथी १२ मास ने लांबा कान तथा नाकवाळा बहेरा धोळा बकराना मांसथी बार वर्ष सुधी स्वर्गस्थ पूर्वजोने तृप्ति मळे छ ।
प्राघूर्णक विधि-“ महोक्ष वा महोजं वा, श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्"
याज्ञवल्क्य जणावे छे के-श्रोत्रिय ब्राह्मण घेर आवे त्यारे मोटा वृषभना अथवा मोटा बकराना मांसथी तेली मेमानगीरी करवी.
परस्पर आवता विरोधना परीहारनी एक चेष्टाः
उपर जणाव्या प्रमाणे मनुनां वचनोमां जे विरोध जणाय छे तेनो परीहार नीचे प्रमाणे छ__ मांसभक्षणनो निषेध करनारां जे मनुनां वचनो ते शास्त्रमा नहि जणावेला मांसने माटे छे, अने मांस-भक्षण करवाना जे मनुनां वचनो ते शास्त्रमा बतावेला मांसने माटे छे । विरोधपरीहारक चेष्टानी अनुचितताः
आ कल्पनामां एक मन् दोष उपस्थित थशे, ते एज के "निवृत्तिस्तु महाफला " मांस भक्षणादिनी निवृत्ति छे ते महाफलबाळी छे, आq जे प्रथम बतावी आव्या छीए ते कोइ पण रीते घटी शकशे नहि. कारण ? निवृत्ति तो प्राप्त वस्तुनी होइ शके छे. कदाच एम पण कहेवामां आवे के लौकिक मांस भक्षण प्राप्त ज छे कारण के शास्त्रमा नहि बतावेला मांसभक्षण पण लोकमां थाय छे. तो ते पण व्याजबी नथी, कारण के लौकिक मांसभक्षणनो तो “ मांस भक्षयिता, “ नाकृत्वा पशूनां हिंसा” “समुत्पत्ति च मांसस्य” इत्यादि वचनोए निषेध करेलो छ, माटे ते प्राप्त ज नथी. तथा
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