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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५] સમીક્ષાભૂમાવિષ્કરણ लौकिक मांस-भक्षणने प्राप्त गणीए तो तेनी निवृत्तिमा ज महालाभ थशे परंतु शास्त्रीयमा मांस-भक्षणनी निवृत्तिमा नही थाय. वळी “न मांसभक्षणे दोषः" मांस-भक्षणमां दोष नथी एम कही "नि .. त्तिस्तु महाफला" एम जणावेल छे. माटे जे मांसभक्षणमां दोष नथी ते मांसभक्षणनी निवृत्तिमा महालाभ छे एम मानवू पडशे. कदाच एम कहेवामां आवे के “न मांसभक्षणे दोषः” ए वाक्य शास्त्रीय मांस-भक्षणभां दोष नथी एम जणावे छे, आ शास्त्रीय मांस-भक्षण "प्रोशितं भक्षयेन्मांसं" इत्यादि शास्त्रशी प्राप्त छे, एनो “निवृत्तिस्तु महाफला" एम कहीने निषेध करवामां आये छे. तो ते पण ब्याजवी नथी. कारण के शास्त्रविहित वस्तुनो निषेध करवामां महापाप समायेल छे. आ वात “यथाविधि नियुक्तस्तु" इत्यादि वचनोथी मनुए स्पष्ट करी बतावी छे. वळी सामान्य दोषवाळी पण वस्तु बनी शके तो धार्मिक प्रसंगमां बर्जवी जोइए तेने बदले मांस-भक्षण जेवी महादोषवाळी वस्तुने धार्मिक प्रसंगमा दोष नथी एम कहीने पोषवी अने देखाव खातर लौकिक प्रसंगमा निषेधवी ते पण एक उकेल कोयडो छ। तथा तर्कदृष्टिए विचार करीए तो पण आ वचनो उचित नथी. “ न मांसभक्षणे दोषो न मधे न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां " आ वाक्यमांथी नीचे प्रमाणे अनुमान वाक्य नीकळी शके छे'शास्त्रविहितं मांसभक्षणं न दुष्टं, भूतानां प्रवृत्तिविषयत्वात् । आ अनुमान प्रयोगमां जणावेल हेतु अनेकान्तिक होवाथी दुष्ट छे. कारण के भूतप्रवृत्तिविषयत्व तो असत्य वचनादिकमां पण छे अने त्यां दोषाभाव नथी. आ दोषनो परिहार करवा माटे कदाच एम कहेवामां आवे के 'शास्त्रविहितप्रवृत्तिविषयत्वात् ' एवो हेतु करीशुं तो ते पण व्याजबी नथी, कारण के प्रवृत्तिपद नका, पडे छे अने व्यर्थ शब्द घटित होवाथी हेतु दुष्ट थई जशे, कदाच एम पण कहेवामां आवे के " शास्त्रविहितत्वात्" एटलोज हेतु आपीशं तो ते पण व्याजबी नथी, कारण के पक्ष अने हेतुर्नु ऐक्य थइ जशे, कारण के पक्ष अने हेतुमां फलतः विशेषता नथी। विरोधपरीहारनी द्वितीय चेष्टाः मनुना समयमां पशु-हिंसा अने मांसभक्षण विश्वव्यापी बनी गयुं हतुं, तेथी सर्वथा रोकवू अशक्य हतुं, माटे समयज्ञ मनुए अल्पकालिक धार्मिक प्रसंगमां मांसभक्षण बतावी दीर्घकालिक सकल मांसभक्षणने निषेध्यु हतु, आथी स्पष्ट थयु के मांसभक्षणनो त्याग करको एज मनुनो अभिप्राय छे. विरोधपरीहारक द्वितीय चेष्टानी अनुचितता:__मांसभक्षणने त्याग कराववानोज जो मनुनो अभिप्राय होत तो एटलुंज कहेवू जोइतुं हतुं के धार्मिक प्रसंगमां इच्छा न होय तो न पण करो, परंतु ते सिवायना प्रसंगमां तो खा, कल्पे ज नहि. आम न कहेतां मनुए भार मूकीने जणाव्यु छे के धार्मिक प्रसंगमां जो मांसभक्षण न करे तो महादोषने पामे छे. जुओ: For Private And Personal Use Only
SR No.521527
Book TitleJain Satyaprakash 1937 12 SrNo 29
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages42
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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