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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५] સમીક્ષાશ્વમાવિષ્કરણ [१९७] थवो जोईए, अने निवृत्तिनी निवृत्ति ते प्रवृत्तिरूप छे माटे मांसभक्षणादिनी प्रवृत्तिमां पण महान् लाभ थवो जोइए. अने तेनो स्वीकार थइ शके तेम नथी केमके निर्दोष वस्तुने छोडवामां जो महालाभ थतो होय तो सन्यासाश्रमादि निर्दोष धर्मक्रियाओने पण त्यजवी जोइए, कारणके तेमां महान् लाभ समायेल छे. आ वस्तु पण इष्ट कही शकाय तेम नथी. अतएव कहेवू पडशे के आ एक ज श्लोकना अर्थमां पण परस्पर विरोध आवे छे। _परस्पर विरोध धरावता मनुना उपर्युक्त वचननी संगतिनो एक नवो उपाय आ छे:___ 'न मांसभक्षणे दोषः' ए पादमांथी जेम दोष शब्द नीकली शके छे, तेम उच्चारण सदृश छतां 'न मांसभक्षणेऽदोषः' ए रीते 'अ' ने लोपायेल मानवाथी 'अदोष' शब्द पण नीकली शके छे, अने तेनो अर्थ एवो थाय छे के मांसभक्षणमां अदोष नथी अर्थात् दोष ज छे." द्वौ नौ प्रकृत्यर्थ निश्चिनुतः' बे निषेध मूल अर्थने सुनिश्चित करे छे. 'न मद्ये न च मैथुने' आनो अर्थ-मदिरापानमां अने मैथुनसेवनमां अदोष नथी अर्थात् दोष ज छे. 'प्रवृत्तिरेषा भूतानां' आनो अर्थ प्राणीओनी आ प्रवृत्ति छे. प्रवृत्ति एटले 'प्रवर्तन्ते उत्पद्यन्तेऽस्यामिति प्रवृत्तिः' उत्पत्तिस्थान छ, अर्थात् मांस, मदिरा अने मैथुनस्थानमा अगण्य जीवोनी उत्पत्ति छ, अथवा 'भूतानां' कहेता भूतोनी भूत पिशाच राक्षस प्रभृति क्षुद्र देवोनी आ प्रवृत्ति छे, अर्थात् विवेकवंतने मांसमदिरादिकमां प्रवृत्ति करवी ते उचित नथी. 'निवृत्तिस्तु महाफला ' आमां रहेल 'तु' शब्द निश्चय अर्थने जणावनार होवाथी, निवृत्ति करवाथीज महालाभ थाय छे. संगतिनो भंग करनारां मनुनां वचनोप्रोक्षितं भक्षयेन्मासं, ब्राह्मणानां च काम्यया। यथाविधि नियुक्तस्तु, प्राणानामेव वात्यये ॥१॥ मनुस्मृति, अ. ५ श्लो० २७॥ वैदिक मन्त्रथी संस्कार अपायेल मांस खावू, ब्राह्मणोए खाता वचेल मांस तेनी इच्छाथी खावू, 'यथाविधि' शब्द अहीयां जोडवाथी एवो पण अर्थ थाय के यज्ञविधि, श्राद्धविधि अने प्राघूर्णक विधिमां ब्राह्मणोए खाता वचेल मांस तेनी इच्छाथी खाय, तथा गुहप कार्यमा जोड्यो होय तो मांस खाय. अहीयां 'यथाविधि' शब्द जोडवाथी एवो पण अर्थ थाय के यज्ञविधि, श्राद्धविधि अने प्राघूर्णक विधिमां गुरुए जोडेली व्यक्ति मांसभक्षण करे, अथवा प्राणना नाशनो प्रसंग उपस्थित थयो होय तो पण मांस-भक्षण करे, कारण के 'सर्वत आत्मानं गोषयेत् ' दरेक रोते आत्मानुं रक्षण करवू जोइए । यज्ञविधि-पशुमेध, अश्वमेध प्रभृति या ने प्रतिपादन करनार शास्त्रमा छे. For Private And Personal Use Only
SR No.521527
Book TitleJain Satyaprakash 1937 12 SrNo 29
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages42
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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