SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२-31 પંડિત ઈંદ્રજીએ [११५ पंडितजीने भाषा-अनुवाद में उल्लिखित आगमके प्रमाणको पढकर कई तर्क-वितर्क किये हैं। खास करके चार आपत्ति खडी की हैं जिनके उत्तर निम्न प्रकार हैं: १. पूर्वागम लिखे नहीं जा सकतें, किन्तु "किसी पूर्वको लिखना हो तो अमुक 'हाथि प्रमाण' श्याही चाहिये" ऐसा पूर्वागम कितना बड़ा है उसका ख्याल करानेके लिये लिखा गया है। यहां वजन लेना या कद? उसका खुलासा तो पूर्ववित् या पूर्वके लेखक ही कर सकते हैं, किन्तु यहां व्यवहारमें सामान्यतया हाथीके वजनसे श्याहीका वजन लीया जाता है। जैसे तीर्थकरके शरीरके नापमें नियत धनुष प्रमाण लिया जाता है वैसे यहां भी समझना चाहिये। जैन आगममें धनुष, रज्जु, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, इत्यादि नाप बतायें हैं वैसे लिपिव्यवस्थामें “ हाथीप्रमाण श्याही"का नाप माना गया है। __पंडितजीने लिखा है कि-" सर शेठ हुलमचंद्रजीका विशालकाय हाथी है, सर्कसोंके भी छोटे दुबले पतले होते हैं, दोनोंमें दूना अन्तर है।" -जैनदर्शन, पृष्ट ४२७ पंडितजी! जरा बजाजको जाकर पूछीये कि आप कपडेका नाप बालीससे करते हैं वह बालीस किसकी ली जाती है? लंबे आदमीकी लि जाती है कि वामनजीकी? वैसा हाथीमें समझ लिजिएगा। विशाल काय और दुबले पतलेका अंतर जैसे मनुष्यमें है वैसे हाथीमें भी है, अतः पैसे निठल्ले प्रश्न पूछना कैसे बुद्धिमत्ता माना जाय? २. अधिकांश काली श्याही ली जाती है। श्याही, कलम आदिके लिये अधिक जानना हो तो “ चित्रकल्पद्रुम "में मुद्रित पू. मु. श्री पुण्यविजयजी महाराजका “लेखनकला" लेख पढ लिजिए ! ३. पद अनेक प्रकारके हैं जैसेकि स्याद्यन्त, त्याद्यन्त, प्रलोकका चौथा हिस्सा (चरण), और ५ १०८ ८४ ६२९ ॥ श्लोकोंका समूह वगैरह। ४. लेखकोंकी लेखन-कलामें प्रमाणकी करीब कारीब नियतता होती है। पंडितजी आपवादिक चर्म और मोक शब्दसे खिल उठते हैं। क्यों नहीं? किन्तु कुछ आपके दिगम्बर समाजके अग्राह्य-ग्रहण पढ लिजिए ताकी आपका जी भर जायगा। और आपको मालूम हो जायगा कि हमारे दिगम्बर समाजमें “ चबानेका दूसरा और दिखानेका दूसरा" पसा ही चलता है। देखिये दिगम्बर मन्दिरमें सारंगी, मृदंग, खंजरी, तबला और चंवर ये सर्व माय हैं। ये सब चमडेसे बनते हैं। पंडितजी मानते हैं कि-" चमडा पंचेन्द्रिय पशुको मारकर उसके शरीरसे उतारा जाता है तथा वह पंचेन्द्रिय प्राणीका अंग है, एवं जीवोंकी उत्पत्तिका योनिस्थान है, चर्मव्यवहारमें देश-विदेशमें कितनी भारी हिंसा है हो रही है यह बात A . For Private And Personal Use Only
SR No.521525
Book TitleJain Satyaprakash 1937 09 10 SrNo 26 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages60
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy