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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११] થો જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५३ किसीसे छिपी नहीं है ” फिर भी दिगम्बर समाज तो उन चमडेकी चीजोंको पवित्र ही मानता है, धर्मक्रियाके साधन मानता है। चंवर भी सब दिगम्बर शास्त्रमें पवित्र ही माना गया है। अन्यथा तीर्थकर भगवानकी चमरकी विभूतिकी क्यों तारिफ होती? हम तो मानते हैं कि चमडा, कैश और पीच्छ सब एकसे हैं, ये सब निर्दोष भी मील सकते हैं। दिगम्बरीय पूजा विधानमें निरूपण है कि नाम, ठवणा, दव्वे, खित्ते, काले, वियाण, भावे य । छव्विह पूआ भणिया, समासउ जिणवरिंदेहिं ॥ उच्चारिऊण णामं, अरुहाईणं विसुद्धदेसंमि । पुप्फाणि जं खिविजति, विणिया (वणिया) णाम पृआसा ।। सब्भावाऽसब्भावा, दुविहा ठवणा जिणेहिं पन्नता। सायारवंतवत्थुमि, जं गुणारोवर्ण पढमा ॥ अक्खय-वराडउ वा, अमुगो एसुत्ति णियबुद्धिए । संकप्पिऊण वयणं, एस विण्णेया असब्भावा ॥ एसा छविह पूआ, णिच्च धम्माणुरायरत्तेहिं । जहं जोगं कायव्वा, सवेहिं म्मि देसविरएहिं ॥ -मनोमति खंडन ... इस दि० शास्त्रमें छे प्रकार की पूजामें सदभाव और असदभाव निक्षेपासे स्थापित अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय सर्व साधु व सरस्वती का पूजन फरमाया है । ये छे पूजाएं दिगम्बर जैनीओंके लिये अनिवार्य हैं। यहां अक्ष और वराटक को असदभाव स्थापनासे अरिहंत व आचार्य वगैरह बनाकर पूजनेका आदेश है। ये अक्ष और वराटक क्या है ? सब कोई समझते हैं कि ये शंखके समान, समुद्र में होनेवाले जलचर. त्रस हैं जिनकी हड्डीको दिगम्बर समाज पवित्र ही नहीं किन्तु पूजनिक मानता है। सच बात तो यह है कि दि० समाज हिंसासे प्राप्त चीजसे ही खिलाफ है और निरवधतासे प्राप्त चीजके पक्षमें है, जो वास्तवमै ठीक भी है। मगर पंडितजीने तो अपने शास्त्रका बिना देखे व हिंसाके स्वरूपको विना सोचे ही मनोगत लिख दिया है, उसे कैसे समजाया जाय ? पं. अजितकुमारजीके पाक्षिक (व०४, अं. ५, पृ. २२८) में भी जाहिर हुआ है, जिसमें भी कक्षकी पूजाका विधान है साकारादि निराकारा, स्थापना द्विविधा मता। अक्षतादि निराकारा, साकारा प्रतिमादिषु । . -प्रतिष्ठा दीपक नामकरण मध्ये ॥ दिगम्बर समाजके पास असली आगम-परंपरा न होने के कारण कतिपय दि. पंडित अक्ष और वराटक शब्दसे हैरान हो जाते हैं और भिन्न भिन्न अर्थ करने लगते है । अतः एसी बातोंको समझने के लिये उन्हें श्वे अगमका ही शरण लेना चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.521525
Book TitleJain Satyaprakash 1937 09 10 SrNo 26 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages60
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size30 MB
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