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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११४] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ ३ अतएव सप्रमाण कहा जाता है कि-दिगंबर समाज भ. महावीर के वचन पथमें चलनेवाला नहीं है, किन्तु भिन्न वचन पथमें चलनेवाला है और उसके ग्रन्थ भी गणधरादि प्रणीत नहीं हैं। क्या, बिना महा वीर-वचनके कोई महावीरका अनुयायी हो सकता है ? श्वे० समाज गणधरादि के आगमको ही पकड बेठा है अतः यह महावीर की सन्तान है। इतने स्पष्टीकरण के बाद मानना पडता है कि पं० इन्द्रचन्द्रजीने श्वे० आगमों को गौतमादि गणधर प्रणीत मानने के लिये लिखा है, वह ठीक है। पंडितजीने खोज की है कि-" सम्राट् चन्द्रगुप्त श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य था, यह बात श्वेताम्बरीय आगमों को भी स्वीकार है " । -जैनदर्शन, पृ० ४२६ । पंडितजीने यह गलत लिख मारा है। किसी श्वे० आगममें चन्द्रगुप्तकी दोक्षाका उल्लेख नहीं है। नंदीसूत्रके अनुवाद कर्ता स्थानकमार्गी साधुजीने वहां जूट लिख दिया है। उस आगम बत्तीसीमें और अन्य किताबोंमें ऐसी अनेक गलतियां हैं जिसका खुलासा " समालोचना जैन तत्त्व प्रकाश" आदि भिन्न भिन्न ट्रेक्टों से प्रसिद्ध हो चुका है। पं० इन्द्रचन्द्रजी मूल पाठको देखते तो उन्हें यह गलती ख्यालमें आ जाती, मगर जो भाषाके ही पंडित हैं उन्हें असली आगम पाठका भेद कैसे प्राप्त होवे ? ___ हां, यह इतिहाससे सिद्ध है कि-द्वि भद्रबाहुस्वामी (श्रीवज्रस्वामी )जीके पास चन्द्रने दीक्षा ली थी जिसका जिक्र श्रवणबेल्गुलाके शिलालेखमें है। जिसका समय वि. सं. १००के बादका है । आगम इससे पहिले बने हैं। पंडितजीका मत है कि-चन्द्रगुप्त, चाणक्य इत्यादिके उल्लेख होनेके कारण आगमको अर्वाचीन मानना चाहिये। जैन इतिहासमें दशपूर्वधारीका अंतिम समय विक्रम सं. ११४ करीबमें है वहांतक आगम बने हैं, अतः पंडितजीकी उपर्युक्त शंका निर्मूल है। पंडितजीने ख्याल बना रक्खा है कि-आगममें ग्राह्य उपदेश ही होता है और कोई बात नहीं आनी चाहीये, याने हिंसा, चोरी इत्यादि करनेवालौंकी कथा नहीं होनी चाहिये। मगर यह उनका ख्याल गलत है, क्योंकि जिनागम सीर्फ पुराण या उपदेश नहीं है, इसमें ४ अनुयोग हैं, वस्तुस्वरूपका यथार्थ वर्णन है, तीनों कालका यथावत् दर्शन है। .. पंडितजीने सेट्ठीकुमारोंकी कथा पर उपरका ख्याल व्यक्त किया है मगर कुछ विचारके साथ सोचे तो उन्हें पता लग जायगा कि-विश्वमें “परिणामिया" बुद्धि कहांतक कार्यकत्री बनती है उस बातका दृष्टांत इस कथामें व्यंजित है। For Private And Personal Use Only
SR No.521525
Book TitleJain Satyaprakash 1937 09 10 SrNo 26 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages60
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size30 MB
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