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आनन्द श्रावक
का
अभिग्रह
लेखक
आचार्य महाराज श्रीमद् जिनहरिसागरमरिजी
स्तम्भ
ओसवाल नवयुवक मासिक फरवरी, सन् '३७, संख्या १० में जैन साहित्य चर्चा में श्री श्रीचंदजी रामपुरिया बी. काम. बी. एल. ने भगवान् श्री महावीरस्वामी के गृहस्थ उपासक आनन्द श्रावक के अभिगृह की चर्चा की है । वह चर्चा ही प्रस्तुत लेख की मुख्य चर्चा रहेगी।
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[ एक चर्चा ]
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चर्चा का मुख्य सूत्र
नो खलु मे भंते! कप्पई अज्जप्पभिई अन उत्थर वा अनउत्थिय देयाणिवा थिय परिगहियाणि अरिहंत चेइयाणि वा वंदित्तए वा नमं सित्तए वा पुचि अणालणं आलवित्तर वा संलवित्त वा सिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुप्पदाडं वा नन्नत्थरायाभियोगेणं गणभिओगेणं बलाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं, ।
( आगमोदय समिति प्र० उपा अ० १ पृ० १२ ) रामपुरियाजी, 'अन्नउत्थिय - परिगहियाणि अरिहंत चेइयाई' पद के लिए लिखते हैं ' कई एक विद्वान्, लेखhi ने 'चेइयाई' ' और अरिहंत चेइयाई' इन शब्दों को क्षेपक माना है और इसी लिए अभिग्रह का अर्थ लिखते समय इन शब्दों का अर्थ नहीं किया है । '
महानुभाव, किसी के अर्थ न करने मात्र से कोई सूत्र क्षेत्र सिद्ध नहीं हो जाता है । ऐसे तो दिगम्बर सम्प्रदाय के सब विद्वान् श्वेतांबर सूत्र ग्रन्थों को नये बनाये मानते हैं । वेतांबरों में स्थानकवासी और तेरापंथी विद्वान् बत्तीस सूत्रों को छोडकर नन्दी सूत्र वर्णित बाकी के सूत्रों को मौलिक नहीं मानते हैं । साम्प्रदायिक विद्वानों के नहीं मानने मात्र मौलिक सूत्र अमौलिक नहीं होते । अमौलिकता के लक्षण तो कुछ ओर ही होते हैं और उनको बहुत गीतार्थ लोग ही जान सकते हैं, हरएक नहीं ।
डॉ. हॉरनोल द्वारा अनुवादित इस उपासक दशा सूत्र की इंगलिश टिप्पणी का उल्लेख करते हुए उनका लिखना है। - 'परिग्गहियाणि चेइयाई' इसमें विभक्तियों का अन्तर विशेष शंकाजनक है । '
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