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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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विभक्तियों का अंतर क्या है, यह उन्हेांने स्पष्ट नहीं किया ----- व्याकरण के वैकल्पिक नियमों से बने हुए एक विभक्ति के दो, तीन या इससे अधिक रूप क्या अर्थान्तर के कारण हो जाते हैं ? 'चेइयाई' और 'चेइयाणिमें स्वरूपभेद जरूर है पर विभक्ति का अन्तर जरा भी नहीं । प्राकृत भाषा के नपुंसक लिंग को पहलो दूसरी विभक्ति के बहुवचन में --- चेइयाई-चेइयाइं-चेझ्याणि ऐसे तीन रूप होते हैं। स्वरूपभेदों का प्रयोग करना वक्ता की इच्छा पर निर्भर है । विद्वान वक्ता इस बात का ध्यान जरूर रखता है, कि अपने वाक्य में विभक्ति भेद न हो । विभक्ति भेद ही अर्थ भेद का कारण हो जाता है । स्वरूप भेद से ही विभक्तिभेद या अर्थभेद नहीं होता। काव्य-साहित्य में 'अनुप्रासालङ्कार'--तुकबंदी कुछ महत्त्व रखती है । पर वह सर्वत्र स्वीकारनी ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि देवयाणि-परिगाहियाणि के जैसे चेइयाणि भी होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है.... चेइयाइं भी हो सकता है। इसमें विभक्ति का अन्तर नहीं स्वरूप का अन्तर है । यह बात प्राकृत के प्राथमिक अभ्यासी भी भली प्रकार जान सकते हैं । डा०होरनोल की टिप्पणी भी सम्भावना मात्र है न कि निश्चयात्मक । ऐसी अनिश्चयात्मक टिप्पणी को मान कर अति प्राचीन सूत्रों को भी केवल अपने मत की पुष्टि के लिए ही क्षेपक मानलेना वंचना मात्र है।
वे लिखते हैं 'मूल पाठ को पढने से एक अन्य तरह से भी डॉ० हारनोल की मान्यता की पुष्टि होती है, अन्न उत्थिए, अन्नउस्थियदेवयाणि इन शब्दों के बाद चेइयाई की तरह ऐसे शब्द नहीं है जो उन शब्दों के अर्थ स्पष्ट करें, और यह बतलायें, कि अन्ययुथिक या अन्यपुथिक देव कौन थे। इस परिस्थिति में केवल परिग्गहियाणि शब्द के बाद ही अर्थ को स्पष्ट करने वाले शब्दों का होना शंका उत्पन्न करता है, और उसके बाद में जोड़े जाने की संभावना को पुष्ट करता है।
महानुभाव ! यदि इस संभावना को काम में लाया जाय, तो वर्तनान जैन आगमों में सैंकडो ऐसे स्थान प्राप्त होंगे जो क्षेपक रूप में स्वीकारे जा सकें। इसी सूत्र में इसी स्थान में--परिग्गहियाणि के बाद के शब्दों को यदि अर्थ स्पष्टक मानकर क्षेपक माने जांय तो 'अन्नउत्थिय देवयागि' और 'अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि' पद भी क्षेपक की कोटि में क्यों नहीं माने जाय ? क्योंकि 'अन्नउत्थिय' कहने से ही 'अन्नउत्थियदेवयाणि परिग्गहियाणि' का अर्थ भी परिगृहीत हो जाता है। अन्न उत्थिय का प्रस्तायोचित अर्थ है 'जैन संघ से अन्य धर्मावलम्बियों का संध'- फिर वे देव हो या भ्रष्ट चैत्य हों, या फिर अन्य कोई क्यों न हो, सब का समावेश हो जाता है। अरिहंत चेइय को अर्थ स्पष्टक
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