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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૧૯૨૩ www.kobatirth.org દિગમ્બર શાસ્ર ડેસે અને ૪૯૫ ( १० सामायिकरूप ) रखना हो तो सवस्त्र सामायिक मानना अनिवार्य होता है । और वस्त्रावस्था में सामायिक न होने से श्रावकधर्म में भी सामायिक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीक्षित होनेवाले को नियत नहीं हो सकता । बस इसी विचार से देशावगासिकवत को उडा दिया । तथा सामायिक और पौषध का स्वरूप बदल दिया। अतिथि- संविभाग करनेवाला श्रावक निर्मयों को ( मुनिओं को ) अल्प अल्प आहार देते हैं । हरएक घर से अल्प अल्प आहार स्वीकारना यह मुनिओं को गोचरी - माधुकरी वृत्ति का विधि है, इस प्रकार शुद्र आहार को पाने के लिए मुनिओं को पात्र आदि की आवश्यकता होती है। दिगम्बर आचार्यों ने सिर्फ कमण्डल की आज्ञा दी, पात्र रखने का निषेध किया । अब अतिथिसंविभाग कैसे हो सके ? परिणामतः उन्होंने अतिथिसंविभाग को उड़ा कर अतिथिपूजा का नाम दाखल करना ठीक माना । कारण वे देशावगासिक और अतिथि संविभाग को श्रावकव्रत मानने में सम्मत नहीं हैं । मगर इस तोड जोड में सभी दिगम्बर आचार्य एक मत न हो सकें । १२ व्रतों की संख्यापूर्ति करना अनिवार्य था, इससे उन दोनों के स्थान पर भिन्न भिन्न कल्पना कर नये नये व्रत खडे कर दिये गये । इस प्रकार दिगम्बराचार्यों का, ७ शिक्षाव्रत के लिए, आ० समन्तभद्र से मतभेद है । देखिये 1 आ० कुन्दकुन्द चारित्रप्राभृत में, आ० शिवकोटि रत्नमाला में और आ० देवसेन भावसंग्रह में दिग्परिमाण, अनर्थदंड विरति, भोगोपभोगपरिमाण, सामायिक, पौषध, अतिथिपूजा और संषणा इन ७ को शीलवत मानते हैं, आ० जिनसेन आदिपुराण पर्व १० में भोगोपभोग के स्थान पर देशावगासिक को दाखिल करते हैं, आ० वसुनन्दी दिग्परिमाण, देशावगासिक, अनर्थदंडविरति, भोगविरति परिभोगविरति, अतिथिसंविभाग और संलेपणा को शिक्षावत बताते हैं, वे सामायिक और पौषध को उड़ा देते हैं, जब भोगोपभोग विरति को दोहराते हैं तथा संलेषणा को जोड देते हैं । यह भेद भी आ० समन्तभद्रसूरि को श्वेताम्बर मानने के पक्ष में है । ऐसी स्थिति में आ० स्वामी समन्तभद्रजी को दिगम्बर आचार्य मान लेना कहां तक न्याय संगत है ? (क्रमशः ) (C *... परन्तु उत्तरगुणोनी बाबतमां दिगम्बरीय सम्प्रदायमा जुदी जुदी परंपराओ देखाय छे, कुंदकुंद, उमास्वाति, समंतभद्र स्वामी, कार्तिकेय, जिनसेन अने वसुनन्दी आचार्यकी भिन्न भिन्न मान्यताओ छे । आ मतभेदमां वयांक नामनो, क्यांक क्रमनो, क्यांक संख्यानो अने क्यांक अर्थविकासनो फेर छे । ए बधुं विस्तृत जाणवा इच्छनारे बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखित जैनाचार्यों का शासनभेद ” नामक पुस्तक पृ० २१ थी आगळ खस बांच घटे । पं० सुखलालजीनुं तत्त्वार्थसूत्र भाषांतर, पृष्ट ३२३ । For Private And Personal Use Only
SR No.521520
Book TitleJain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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