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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org *** શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ચૈત્ર आ० समन्तभद्र के शिष्य शिवायनजी की परंपरा में आ० वीरसेन, आ० जिनसेन, और आ० गुणभद्र हुए हैं, जो सेन शाखा के आचार्य थे । ( किन्तु आ० कौण्डकुन्द नंदी संघ के आचार्य माने गये हैं) कथाग्रन्थों से पता चलता है कि --- शिवकोटि और शिवायन ये मात्र नामभेद है । पं० ० नाथुराम प्रेमीजीकृत " विद्वद्रत्नमाला" पृ० ७. उपर के प्रमाणों से आ० समन्तभद्रसूरि का दिगम्बरत्व सिद्ध होता नहीं है । जब विपक्ष में आपके गच्छ के लिये विभिन्न कल्पनायें और उन के गुरु का नाम जाहिर करने में मौन आदि दोष खडे हैं । आपका दो दो बार दाक्षित होना मानना और आपके गुरु का नाम नहीं बताना इसमें अवश्य कोई रहस्य होना चाहिए। मुमकिन है कि ऐसा करने में, आप आ० श्री चन्द्रसूरि के शिष्य थे, अधिकतया वनमें रहते थे और आ० देवसूरिजी जिनकी शिष्यपरंपरा आज तक अविच्छिन्न है, उनके गुरु थे, इन सभी बातों को छोपाने की मनशा हो । आपके ग्रन्थों में दिगम्बरत्व का इशारा भी नहीं मिलता, अतः कतिपय विद्वानों ने आपको दिगम्बर बनाने के लिये "स्वयंभू स्तोत्र" के लोक ११५ के " बन्दीभूतवतः " पाठ के अर्थ में 'मंगलपाठकी भूतोऽपि नग्नाचार्यरूपेग भवतोऽपि मम' ऐसी कल्पना उठाकर नग्नता स्थापित करने की कोशिश की है। (स्वामी समन्तभद्र, पृ० ९ ) । मगर यह कल्पना कहांतक ठीक है उसका विचार स्वयं व्याकरणविद् कर लें । आपके दिगम्बर होने का इन्कार, और एक मान्यताभेद से भी सिद्ध होता है, जैसे कि - जिनागम के अनुसार सम्यक्त्व पूर्वक ५ अणुव्रत और ७ शिक्षावत ( ३ गुणवत ४ शिक्षावत) ये श्रावक के १२ व्रत हैं। संलेपणा का स्वीकार इनसे भिन्न है । तत्त्वार्थसूत्र अ० ७, सूत्र १६ -१७ में कुछ कम परावर्तन से यही कथन है । 'नकरंडक श्रावकाचार' जो आपके नामपर चडा हुआ है, उसमें भी दिग्नत, अनर्थदंडवत, भोगोपभोगपरिमाण, देशावगासिक, सामायिक, पौषधोपवास और वैयावृत्य ( मुनिभक्ति ) (मूलाचार, पृ. ५, गाथा १९४ ) ये ७ शिक्षावत ( शीलवत ) बताये हैं । दिगम्बर पं० आशाधरजी ने सागारधर्मामृत में इसी मान्यता का स्वीकार किया है। स्वामी कार्तिकेयने भी कम परावर्तन से इसका ही प्रतिघोष किया है । किन्तु दिगम्बराचार्य इस ( ७ शिक्षावत के विषय में भेद रखते हैं, क्यों कि उन्हें देशावगासिक और अतिथिसंविभाग व्रत इष्ट नहीं है । इसका कारण स्पष्ट है वस्त्रों को सावद्य मानने से सामायिक का स्वरूप बदल दिया और असली सामायिक न रहा तो देशावगासिक और पौषध कैसे हो सके ! और जब देशावगासिक नाममात्र का रहता है तो फिर उसको श्रावक के व्रत में शामिल करने से क्या लाभ? देशावगासिक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.521520
Book TitleJain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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