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૧૯૯૩
દિગબર શાસ્ત્ર કેસે બને? आ० बलाकपिच्छ के बाद आ० समन्तभद्रसूरि हुए । देखिए :
एवं महाचार्यपरम्परायां, स्यात्कारमुद्रांकिततत्त्वदीपः। भद्रस्समन्तात् गुणतो गणीशस्समंतभद्रोऽजनि वादिसिंहः॥
...--- शि० नं० ४०, श्लो० ९, शक सं० १०८५ । संमन्तभद्रस्स चिराय जीयात्, वादीभवज्रांकुशमूक्तिजालः । यस्य प्रभावात् सकलावनीयं, बन्ध्यासदुर्वादुकवार्तयोपि ॥
-- शि० नं० १०५, श्लो० १७, शक सं० १३२० । समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य ।
__ -- शि० नं० १०८, श्लोक १४, श० सं० १३५५ । आचार्य कौण्डकुंद के पश्चात् आचार्य समन्तभद्र हुए, ऐसा शि० नं० ५४, श्लोक ६, ७, ८ (शक सं० १०५० ) में उल्लिखित है।
श्रवणबेलगोल शि० नं० ४० [६४ ] में स्वामीजी को चन्द्रगुप्त, कुन्दकुन्द व उमास्वातिजी के वंशज माना है।
-(स्वामी समन्तभद्र, पृ० १३)* दिगम्बर ग्रन्थों में भिन्न भिन्न शाखावालों ने स्वामी समन्तभद्र को अपनी अपनी शाखा में होना माना है। चौदहवीं शताब्दी के हस्तिमल्ल ने विक्रांतकौरव में तथा अट्यपार्य ने जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय में आपको " मूलसंघ" के आचार्य माना है। औ रेराने नन्दिगण, देशिगण, सेनगण, नन्दिसंघ, द्रमिलसंघ, व अरुगल शाखा का बताया है ।
-- ( स्वामी समन्तभद्र, पृ० १३, १५, ३४) दिगम्बर ग्रन्थकार आपको दुवारा दीक्षित, महावादी, पदर्धिक, कलिकालगणधर व भावि तीर्थंकर होना बताते हैं। (स्वामी समन्तभद्र, पृ० १३, ६१, १०५, १९२) आ० समन्तभद्रसूरि के शिवकोटि, सिंहनन्दी और शिवायन शिष्य थे । तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिमूरिस्तपोलतालंबनदेहयष्टिः ।
- शि० नं. १०५, श्लो० १९, शक सं. १३२० तथा कथाग्रन्थ । आपके शिष्य सिंहनन्दी हुए – शि० नं. ५४, श्लोक ९। आपके पश्चात् आ० पूज्यपाद हुए। शि० नं० ४०, १०८ । आपके शिष्य शिवायन थे। विक्रान्तकौरवीय नाटक ।
* इस प्रकरण में पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के " स्वामी समन्तभद्र" का अधिक उपयोग किया गया है । आशा है कि- स्वामीजी के ग्रन्थ पढकर और जांच करके भविष्य में और भी प्रकाश डाला जायगा ।
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