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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ચૈત્ર आचार्य की रचना हो और 'कुन्दकुन्द श्रावकाचार' व 'उमास्वातिश्रावकाचार' की तरह आपके नाम पर चढाया गया हो। ६-जीवसिद्धि, ७-तत्त्वानुशासन, ८ प्राकृतव्याख्यान, ९--प्रमाणपदार्थ, १०-कर्म प्राकृत टोका और गंधहस्ति महाभाष्य, ये अप्राप्य ग्रन्थ भो आचार्य समन्तभद्रसूरि विरचित हैं। वा० उमास्वातिजी के ' तत्त्वार्थसूत्र' पर आपने 'गन्धहस्ति महाभाष्य' रचा है, जो अनुपलब्ध है, ऐसी दिगंबर ग्रन्थ-विधाताओं की मान्यता है । किन्तु 'तत्वार्थसूत्र' के प्राचीन दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद (देवनन्दीजी) और भट्ट अकलंकदेव वगैरह किसीने इस महाभाष्य का अस्तित्व तक बतलाया नहीं है । इतना ही नहीं विक्रम को चौदहवीं शताब्दी के पहिले के किसी भी ग्रन्थ में “ महाभाष्य" का इशारा भी नहीं है। ----- (पं० सुखलालजी लिखित तत्त्वार्थसूत्र परिचय, गुजराती, पृ० ३७, स्वामी समन्तभद्र-ग्रन्थ परिचय, पृ० २१४-२२०) इन ग्रन्थों में आप के रचित ग्रन्थ कितने हैं और आपके नांवपर चढे हुए कितने हैं यह जांच करना अत्यावश्यक है। आपके बहुत से ग्रन्थ सर्वसाधारण हैं। उन पर न श्वेताम्बर दावा कर सकते हैं न दिगम्बर । आपने किसी भी ग्रन्थ में अपने गुरुजी का नाम बताया नहीं हैं । आ० समन्तभद्रसूरि ने अधिकांश वन में ही निवास किया है, अतः दिगम्बर ग्रन्थकारों ने आपको अपनाया है, साथ साथ में आपके ग्रन्थ भी दिगम्बर शास्त्र के रूप से स्वीकारे गये हैं। आपके ग्रन्थ, वन में बने और वन में हो रहे । यह ग्रन्थ भण्डार दिगम्बर मुनियों को हस्तगत हुआ । इससे स्वामीजी के ग्रन्थ दिगम्बर समाज में आगमसे माने गये और दिगम्बर आचार्यों ने उनके विवरण भी लिखे । आपके ग्रन्थों का श्वेतांबर समाज में अधिक प्रचार नहीं है। ___आपकी 'आप्तमीमांसा' की 'अष्टसहस्री' पर श्वेतांबर न्यायविशारद, न्यायाचार्य महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने ८००० श्लोक प्रमाण टिप्पन बनाया है, इतना ही नहीं वरन उन्होंने दिगम्बर मान्यतानुसार आपको दिगम्बर होने का उल्लेख भी किया है । श्वेतांबर आचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरि व आ० मलयगिरिजी ने स्वामीजी के ग्रन्थ की गवाही दी है। -( स्वामी समन्तभद्र, पृ० ६६-६७) दिगम्बर साहित्य में स्वामी समन्त के लिये इस प्रकार की विचारणा है : आपके गण-शाखा के नाम भिन्न भिन्न लिखे गये हैं, जब कि आप के गुरुजी का नाम बिलकुल गुम कर दिया गया है । वा० उमास्वातिजी का बलाकपिच्छ शिष्य था और गुणनन्दी प्रशिष्य था । -(प्रो०हीरालालजी संपादित 'शिला लेख संग्रह'भाग १, शि०नं० ४२,४३,४७,५०) For Private And Personal Use Only
SR No.521520
Book TitleJain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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