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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ગિકબર શાસ્ત્ર કૈસે બને? ..- . . -- - - बनाया जाकर भगवान् उमास्वाति के नाम से प्रकट किया गया है, जब कि तेरहपंथ की स्थापना हो चुकी थी और उसका प्राबल्य बढ रहा था। यह ग्रन्थ क्यों बनाया गया है ?-~~-इसका सूक्ष्म विवेचन फिर किसी लेख द्वारा जरूरत होने पर प्रकट किया जायगा । परन्तु यहां पर इतना बतला देना जरूरी है कि इस ग्रन्थ में पूजन का एक खास अध्याय है और प्रायः उसी अध्याय की इस ग्रन्थ में प्रधानता मालूम होती है । शायद इसी लिए हलायुधजी ने अपनी भाषा टीका के अन्त में, इस श्रावकाचार को "पूजाप्रकरण नाम श्रावकाचार" लिखा है। इस उल्लेख से निर्विवाद है कि- पूजाप्रकरणकार ने उमास्वातिजी के नाम से जगत को धोका दिया है । साथ में यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वातिजी महाराज श्वेताम्बरीय आचार्य थे, दिगम्बर समाज ने तत्त्वार्थसूत्र के कारण आपको अपनाया है।" स्थानकमार्गी समाज ( श्वेताम्बरी ) वा० उमास्वातिजी को श्वेताम्बर आचार्य ही मानता है । स्थानकमार्गी समाज के स्वामी देवचन्द्रजी (कच्छी), उ० आत्मारामजी पंजाबो वगैरह ने तत्वार्थ सूत्र का विवेचन किया है।५७ सारांश यह है कि- वा० उमास्वातिजी श्वेतम्बर आचार्य हैं। (क्रमशः) ५७, उ० आत्मारामजी ने तत्त्वार्थसूत्र पर “आगमसमन्वय" बनाया है, जिसमें मूल सूत्र दिगम्बरीय है जब समन्वय पाठ श्वेताम्बर आगम के हैं। संभव है कि -दिगम्बर मान्य तत्त्वार्थ को श्वेतांबर आगम से अवतारित होना बताने का यह प्रयास हो, किन्तु यह प्रयास सर्वतोमुखी सफल नहीं है, क्योंकि जो सांप्रदायिक सूत्रभेद है वह तो ज्यों का त्यों स्पष्ट है। देखिये-एकसामयिका-सामयिक (२-२९), पोत-पोतज (२-२३), चरमउत्तमदेहा-चरमदेहउत्तमपुरुषाः (२-५३), तिर्यक्योनि-तिर्यक्योनिज (२-३९)। इसके अलावा अ. ३ के सूत्र १० का " तन्मध्य" शब्द; अ० ४ के सू. २, ७, १८, ३१; अ० २ का सूत्र ४३; भ. . के सू० ४ से ८ के समन्वय में भी अर्थपाठ और मान्यता का भेद है । ग्राहक भाईओने अगत्यनी सूचना जे ग्राहक भाई- लवाजम ज्यारे पूरुं थाय छे त्यारे तेमने ते संबंधि वखतसर सूचना करवामां आवे छे. अने तेमां वी. पी. नी सूचना पण स्पष्ट करवामां आवे छे. छतां तेओ तरफथी सूचना नथी मलती अने वी. पी. पार्छ करवामां आवतां नकामुं टपाल खर्च भोगवq पडे छ । ग्राहक भाईओ आ तरफ अवश्य ध्यान आपे अने नकामु टपाल खर्च अटकाववानी कृपा करे। - For Private And Personal Use Only
SR No.521518
Book TitleJain Satyaprakash 1937 02 SrNo 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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