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શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ उस समय आगम का सर्वथा विनाश हो चुका था, पर जब कि आप केवलि-देशीय (पूर्ववित्) ज्ञानी माने जाते हैं तो आपका, उस समय पूर्ववेदी का अस्तित्व माननेवाली शाखा में ही होना सिद्ध होता है । श्वेताम्बर इतिहास साफ बताता है कि-वीरनि० सं० ९८० तक पूर्व के ज्ञानवाले मुनिवर विद्यमान थे । अतः आपको दिगम्बर नहीं किन्तु श्वेताम्बर आचार्य मानना युक्ति संगत है।
तत्त्वार्थसूत्र बेनमुन शास्त्र है । दिगम्बर समाज ने उसे “ मोक्षशास्त्र" के नाम से अपनाया, और साथ साथ में वा० उमास्वातिजी महाराज को भी अपना मान लिया, मगर इतिहास के विशारद इस बातको नहीं स्वीकारते ।
. तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरकृति मानने के अनेकों प्रमाण हैं, फिर भी दिगंबरी भाई उसे दिगम्बरी शास्त्र मानते हैं और एक जगह तो उसके कर्ता के स्थान में दूसरा ही नाम जोड दिया गया है । देखिए श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० ३५ में सं० ९९९ को मल्लिषेगसूरि की प्रशस्ति में “राद्धांत (तत्त्वार्थ ) सूत्र के रचयिता आर्यदेव को. माना है ("स्वामी समंतभद्र,” पृ० १९२ ) ।
कोई एक दिगम्बर विद्वान ने यह सोच लिया कि--वा० उमास्वाति के सभी उपलब्ध ग्रन्थ श्वेताम्बर पक्ष के ही हैं, एक भी ग्रंथ दिगम्बर पक्ष का नहीं है, तो उनके नाम से नया ग्रन्थ क्यों न बना लिया जाय ? और उस दिगंबर विद्वान ने विक्रम की १७वीं शताब्दी में "उमास्वाति-श्रावकाचार" ग्रंथ बनाकर वा० उमास्वातिजी के नाम पर चडा दिया। इस ग्रंथ का कुछ परिचय हम अगले विभाग में कराएंगे।
दि० विद्वान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारजी का संशोधक हृदय ऐसी उठावगीरी को न सह सका । फलतः उन्हेांने 'प्रन्थपरीक्षा' भा० १, पृ० २४ में आमतौर से इस बातका भ्रमस्फोट कर दिया कि
"जहां तक मैंने इस (उमास्वाति श्रावकाचार ) ग्रन्थ की परीक्षा की है, मुझे ऐसा निश्चय होता है, और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता, कि यह ग्रन्थ सूत्रकार भगवान् उमास्वाति महाराज का बनाया हुआ नहीं है। और न किसी दूसरे ही माननीय जैनाचार्य का बनाया हुआ है । ग्रन्थ के शब्दों और अर्थों पर से इस ग्रन्थ का बनानेवाला कोई मामुली, अदूरदर्शी और क्षुद्रहृदय व्यक्ति मालूम होता है। और यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी के बाद १७ वीं शताब्दी के अन्त में या उससे भी कुछ काल बाद, उस वक्त
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