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દિગબર શાસ્ત્ર કૈસે બને? बडे, कठीन ग्रन्थों व भाष्यों से पारपाने योग्य ( ज्ञेय ) ऐसे जिनवचनसमुद का प्रत्यास करने में कोन समर्थ है ? ॥२३॥ इस तरह यहां वाचकजी जिनेन्द्र के वचन की महत्ता और अपनी लघुता व्यक्त करते हैं । ये गाथार्य मूल के कर्ता और भाष्य के कर्ता एक ही होने को मान्यता को पुष्ट करती हैं। यदि ये गाथायें मूलकार की होती और भाष्य-चियिता दूसरे होते तो इनका भी भाष्य बनाते, इतना ही नहीं वरन भाष्यकार अपना दूसरा मंगलाचरण भी अवश्य करते। यदि ये गाथायें मूलकर्ता से भिन्न दूसरे भाष्यकार की होती तो वे इनमें अपनी लघुता को न बताकर मूलग्रंथकार की तारिफ करते। किन्तु यहाँ तो वा० उमास्वातिजी ने ग्रंथ कर्ता की हैसियत से " वक्ष्यामि" शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया है, और अंत-प्रशस्ति-में भी " दृब्धं" शब्द से अपने ग्रंथकतृत्व को साफ बताया है । इससे अविसंवाद माना जाता है कि-बा० उमास्वातिजी ने ही सूत्र और भाष्य बनाये हैं।
वाचकजी भाष्य में, पश्चाद्वति मूल सूत्रों का उल्लेख करते सयम प्रतिस्थान " वक्ष्यामः " शब्द का प्रयोग करते हैं । ये प्रयोग भी एक कर्तृव के द्योतक हैं ।
दिगम्बर आ० पूज्यपादकृत सबसे प्राचीन " सर्वार्थसिद्धि" टीका करीब करीब तत्त्वार्थ-भाष्य के ही प्रतिध्वनिरूप है । जिसमें निम्रन्थ आदि शब्द का विवेचन भी भाष्य के अनुरूप ही है।
सारांश-वाचकजी ने तत्वार्थाधिगम सूत्र रचा, और जावों के हित-निमित्त उसको भाष्य भी बनाया।
आपका तत्त्वार्थ सूत्र उपलब्ध जिन-आगमों को ही अनुसरता है । अतः उसमें प्रतिपादित देवलोक १२ ( अ० ४, सू० ३), काल के अणुका अभाव (अ० ५, सूत्र १, २, १३, १४, १५, २२), तीर्थकर को वेदनीयकर्मजन्य भूख, प्यास आदि ११ परीषहों का होना (अ० ९, सूत्र ११, १६), उपकरणवाले ही नहीं वरन उपकरणबकुश भी जैन निर्ग्रन्थ (जैन मुनि ) हैं (अ० ९, सू० ४६), ममता ( मेरापन ) ही परिग्रह है (अ० ७ सू० १२), वगैरह पाठ उपलब्ध जिनागमों से सर्वथा सम्मत है, न कि दिगम्बरमान्य शास्त्र से ।
--(प्रो० हीरालाल र. कापडिया कृत - तत्त्वार्थपूत्र, प्रस्तावना.)। .
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