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દિગબર શાસ્ત્ર કૈસે બને? इसके अलावा और भी उल्लेख मिलते हैं:
आप असल में वेद-धर्मी थे, किन्तु जिनवरेन्द्र को प्रतिमा के दर्शन से वीतरागत्व का परिचय पाकर जैन मुनि बनें ।५४. बाद में आप पूर्ववित् होकर उच्चानागरी शाखा के वाचनाचार्य पद पर अधिष्ठित हुए।
-(भक्तामर स्तोत्र वृत्ति) आप के पिता का नाम स्वाति कौभिषण और माता का नाम उमा वासी है, अतएव आपका नाम उमास्वाति रक्खा गया था। देखिए प्रमाण : १. स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।
-स्वोपज्ञ तत्वार्यभाष्यम् । २-३ स्वातितनयेनेति पितुराख्यानं, “यात्सीसुतेनेति मोत्रेण नाम्ना, उमेति मातुराख्यानम् । ----आ. हरिभद्रसूरि आ. यशोभद्रसूरि कृत तत्त्वार्थ-लघुटीका, मुद्रित पृष्ट. ५३५ ॥
-सिद्धसेनगणिकृत तत्त्वार्थ-बृहट्टीका, मुद्रित पृष्ट, ३२६ ॥ ४-से १० अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसौ ।
-प्रो० होरालालजी दि० जैन संपादित, शिला० भा० १, शिलालेख, नं० ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०५, १०८। नगरतालु का
शिलालेख । याचकवर्य श्री उमास्वातिजी पूर्वधर थे । देखिए प्रमाणः - १. वाई य खमासमणे, दिवायरे वायगति एगट्ठा ॥
पुरगयम्मि य सूते, ए ए सदा पजति ॥१॥ अर्थ—पूर्वज्ञानवाले वादी क्षमासमण दिवाकर और वाचक : इन शब्दे से संबोधित किये जाते हैं।
-जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर प्रकाशित बृहदक्षेत्रसमास की प्रस्तावना से ||
२. आपने तत्त्वार्थकारिका में श्री शिवश्री, श्री मुंडपाद, श्री मूल व स्वयं को वाचक बताये हैं और अपने गुरु घोषनदि को एकादशांगवित् लिखे हैं । इससे स्पष्ट है कि
५४. स्थानकमार्गी पंडित मुनि देवचन्द्रजी भी लिखते हैं कि
वाचक मुख्य श्री उमास्वाति जातिए ब्राह्मण शवधर्मने माननार हता । तेओश्रीने जैनधर्मनो स्वीकार अने भागवती जैन दीक्षा ग्रहण करवामां जिनपडिमानुं पवित्र पुष्ट निमित्त मानवामां श्रावेल छे।
- गुजराती तत्त्वार्थसूत्र, भप्रवचन, पृष्ठ २४ ॥
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