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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीन सत्य प्राश सिर्फ घोषनंदिजी एकादश अंगके धारक थे, और बाकी के चार मुनीन्द्र बारह अंग याने पूर्वज्ञान के धारक थे। उमास्वातिजी अपने गुरु से ११ अंग पढे, बाद में दादा गुरु के अभाव में वाचकमूल के पास पढे। दो वंश के समन्वय में यह बात भी अर्थ-संगत है । फलतः आपको बारहवे अंग के ज्ञान के लिये दूसरे वाचकजी के पास जाना पडा । इससे आप बारह अंग के ज्ञाता थे यह प्रमाणित होता है । ३. दिगम्बर शास्त्र भी वाचकजी को केवलि-देशीय, अर्थात् " पूर्ववित् " मानते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरं ।। श्रुतकेवलिदेशीयं, वंदेऽहं गुणमन्दिरं ॥१॥ -एपिग्राफिआ कर्णाटिका, जिल्द-८, नगरतालु का शिलालेख, अनेकांत (मासिक), पृष्ट-२७०, ३९५ । आपका समय-काल विक्रम की तीसरी शताब्दी का है। और आपने ५०० प्रन्थ बनाये हैं। जिनमें से १. तत्वार्थसूत्र मूल, २. तत्त्वार्थ-भाष्य श्लो० २२००, ३. प्रशमरति प्रकरण, ४. जम्बूद्वीप समास, ५. पूजा प्रकरण श्लो० १९, ६. श्रावक प्रज्ञप्ति और ७ क्षेत्रसमास शास्त्र उपलब्ध हैं। स्थानांग सूत्र-वृत्ति, पंचाशक-वृत्ति, उत्तराध्ययनसूत्र की दो टीकायें, तत्वार्थबहद् टीका और भिन्न भिन्न ग्रन्थों में आपके ग्रन्थों के अनेक अवतरण पाठ मिलते हैं। श्वेताम्बर समाज इन सभी को आप्त-वचन मानता है । (क्रमशः) (५४ ३८०ी यातु) क्षेत्रादेशपट्टकः श्रीसोरठदेशे संवत् १७७४ वर्षे । अत्रोद्धरितक्षेत्रादिसत्यापना पं । देवकुशलगणिभिर्विधेयः । ससस्त समुदोययोग्यं अपरं पट्टा प्रमाणे सहू आदेशे पहुंचीयो मर्यादापट्टक मुक्यो छे ते प्रमाणे प्रवर्तजो । जे अगविचारयो चालस्ये ते उपालंभ पामस्यै । बीजं गृहस्थ संघातें चढी बोलवू नहीं, गृहस्थोनुं मन ठाम राषq, लोकिक व्यवहार विशेषे. राखवू । चोमासा मांही किहांइ जावं आवq नहीं, समझी सावधान प्रवर्त्तवें । -अकणावदा-झानभंडार से प्राप्त पत्र से उद्धत । For Private And Personal Use Only
SR No.521517
Book TitleJain Satyaprakash 1937 01 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
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