SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૩૮૧ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ પોષ श्री उमास्वातिजी इस श्वेताम्बरी " उच्चानागरी शाखा के वाचकवंश के प्रधान नायक थे, इस प्रमाण से तक्षशिला के विद्यापीठ-विधान में जैनाचार्यों का कितना सहकार था यह भी स्पष्टतया निर्णित हो जाता है । वाचक श्री उमास्वातिजी महाराज स्वयं अपना सम्बन्ध इस प्रकार व्यक्त करते हैं " www.kobatirth.org अर्थ - श्री उमास्वातिजी वाचकेश श्री शिवश्री के प्रवव्या - प्रशिष्य थे, अग्यारह अंग के धारक श्री घोषनन्दि क्षमण ( महातपस्त्री, क्षपण ) के प्रत्रज्या - शिष्य थे, महावाचक मुंडपाद क्षमण के वाचना-प्रशिष्य थे, वाचकाचार्य मूल के वाचना- शिष्य थे, न्यग्रोधिका के रहेनेवाले थे, कौभीषणि गोत्रवाले थे, स्वाति (पिता) और वासीगोत्रवाली (उमा) माता के पुत्र थे, उच्चानागरीशाखा के वाचनाचार्य थे। आपने गुरुगम से अर्हद्वाणी को ग्रहण करके पटना में मिथ्याशास्त्रवचन में फसे हुए जीवों के हित के लिये " तत्त्वाश्रधिगम " शास्त्र बनाया । आपका नाम था उमास्वाति जी । - तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति- कारिका " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 99 वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः, प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनंदिक्षमणस्यैकादशांगविदः ॥ १ ॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुंडपाद शिष्यस्य । शिष्येण च वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥ २ ॥ न्यग्रोधकामसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । Satara स्वातितनयेन वात्सीमुतेनार्घ्यम् ॥ ३ ॥ अर्हदवचनं सम्यग् गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुखार्ते च दुरागम-विहितमर्ति लोकमवगम्य ॥ ४ ॥ इदमुचैर्नागरवाचकेन, सत्त्वानुकंपया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं, स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५ ॥ ५३. गुरुपरंपराके दो प्रकार हैं:- :- १. गणधरवंश, २. वाचकवंश | एक्कारस वि गणहरे, पवायए पवयणस्स वंदामि ॥ सव्वं गणहरवेसं वायसं पवयणं च ॥ ८० ॥ आवश्यक नियुक्ति " सव्वं गणहरवंसं " अज्जमुहम्मे० थेरावली या व। जेहिं जाव अम्हं सामाइयमादीयं वादितं । वायगवस नाम जेहिं परंपरएणं सामायिकादि अत्थो गंथो य वादितो । अनो गणहरवंसो भन्नो य वायगवंसो ॥ - आवश्यकचूर्णि पृष्ट ७६ । - वाचक = पाठक, उपाध्याय ॥ -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १०६२ पृष्ट ४९० ॥ आर्य परंपरामां बे वंशो प्रसिद्ध छे, जन्मवंश, योनिवंश विद्यायोनिसंबन्धेभ्यो वुल् पाणिनी सूत्र ४-३ - ७० । -पं० सुखलालजी अनुवादिन तत्वार्थसूत्र प्रस्तावना, पृ० १,२६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521517
Book TitleJain Satyaprakash 1937 01 SrNo 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy