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दिगम्बर शास्त्र कैसे बनें ?
लेखक - मुनिराज श्री दर्शन विजयजी. प्रकरण ९ - वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी.
( तृतीय अंक से क्रमशः )
भारतवर्ष के प्राचीन विद्यापीठो में तक्षशिला और नालंदा (राजगृही) के
પર
विद्यापीठ प्रधान हैं। संभव है कि जैसे राजगृही के विद्यापीठ का स्थान नालंदा पाडा है वैसे तक्षशिला के विद्यापीठ का स्थान उच्चनगर हो । उच्चनगर प्राचीन काल में विद्या का केन्द्र था । यह नगर विक्रम की १२वी शताब्दी तक विद्यमान था * २, बाद में उसका विनाश हुआ है । रावलपडी से उत्तर में तक्षशिला और उच्चनगर के खंडहर आज भी अपने प्राचीन गौरव की शहादत देते हुए मौजूद हैं ।
भगवान् महावीर स्वामी के बाद क्रमशः सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, शयं भवसूरि, यशोभद्रसूरि, श्री सम्भूतिविजयसूरि, श्री स्थूलभद्रस्वामी, श्री आर्यसुहस्तिसूरि, सुस्थित सूरि-सुप्रतिबद्धसूरि, इन्द्रदिनसूरि और दिन्नसूरि प्रभावक आचार्य हुए हैं । आ० दिन्नसूरि के दो शिष्य थे, १ - माढरगोत्रीय आ० शांतिश्रेणिक, २ - कौशिक गोत्रवाले, जातिस्मरण ज्ञानवाले आ० सीहगीरीजी। इनमें से आचार्य शान्ति श्रेणिक अपने शिष्यों के साथ उच्चनगर ( तक्षशिला ) के प्रदेश में विचरते थे, अतः आपकी शिष्यपरंपरा करिब विक्रम की प्रथम शताब्दी में " उच्चानागरी - शाखा " के नाम से विख्यात हुई । इस शाखा में भी गणधर वंश और वाचक वंश संस्थापित हुए थे । आर्यश्रेणिका, 1 आर्यतापसी, आर्यकुबेरा (कुबेरी) और आर्यऋषिपालिका ये उसी के गणधर वंश की शाखायें हैं । --- ( कल्पसूत्र स्थविरावली, पडावली समुच्चय भा. १, पृ. ७ )
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१२११ ) तक प्राप्त होती
है
५२. आ० जिनदत्तसूरि के समय ( वि० सं० का केन्द्र था, इस बात की शहादत इस प्रकार जिनदत्तसूरि को कहा कि - १. दिल्ली, २. अजमेरु, ३. भरुअच्छ, ४. ६. उच्चनगर, ७. लाहोर एतन्नगरसप्तके परिपूर्णशक्तिरहितैः खरतरगच्छनायकै रात्रौ न स्थातव्यमिति । - वि० सं० १८३० में जूनागढ में " उ० क्षमाकल्याणक " विरचित "" खरतरगच्छपट्टा
- योगिनियों ने आ० उज्जैन, ५. मुलतान,
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वली | श्रीमान् पूरणचन्द्रजी नाहर मुद्रित, पृष्ट - २५ |
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उच्च नगर
" जैनसमाज