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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૧૯૯૩ મહાવીર-ચરિત્ર-મીમાંસા ૧૫૩ समवसरण था । प्रथम समवसरण में मृगावती ने नहीं, उनकी ननद जयन्ती ने दीक्षा ली थी ऐसा भगवती सूत्र के लेख से सिद्ध होता है । चरित्रकारों के घटनाक्रम में से जयन्ती की दीक्षा का प्रसंग छूट जाने से यह भूल हो गई है । इस अवस्था में राजगृह के आठवें वर्षावास के बाद कौशाम्बी में मृगावती की दीक्षा का प्रसंग मानना ही प्रामाणिक हो सकता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ' मगध से भगवान् वत्सभूमि में विचर थे और वहां से विदेह में । ख' और 'ग' के लेखों में भी यही विधान है कि मृगावती की दीक्षा के बाद भगवान् विदेह में विचरे थे । इस दशा में अगला वर्षावास भी विदेह के निकटस्थ केन्द्र वैशाली - वाणिज्य गांव में होना ही अवसर प्राप्त है । ( ९ ) भगवती, विपाकश्रुत, उपासकदशा आदि मौलिक सूत्र सहित्य के वर्णनों से पाया जाता है कि भगवान् पाञ्चाल, सूरसेन, कुरु आदि पश्चिम भारत के अनेक देशों में विचर थे, इससे हमारा अनुमान है कि इसी अवसर में उन्होंने कोशल-पाञ्चालादि प्रदेशों में विहार किया था और काम्पिल्य में कुण्डकौलिक और पोलासपुर में सदालपुत्र आदि को प्रतिबोध दे निर्ग्रन्थ-प्रवचन का स्वीकार करवाया था, और वर्षावास उसी केन्द्र वैशाली - वाणिज्यग्राम में किया था । (१०) 'ख' और 'ग' के लेखानुसार काम्पिल्प और पोलासपुर से भगवान् राजगृह पधारे थे और महाशतक को प्रतिबोध किया था । हमारा भी यही अभिप्राय है कि उक्त स्थानों के बिहार के बाद वाणिज्य-ग्राम में वर्षावास करके भगवान् राजगृह पधारे थे और महाशतकादि को प्रतिबोध किया था तब वर्षावास भी वहीं किया होगा, क्योंकि मगध में वर्षावास का वही केन्द्र था । (११) 'ख' और 'ग' के लेख मुजब भी महाशतक के प्रतिबोध के बाद भगवान् राजगृह से श्रावस्ती की तरफ विचरे थे और नन्दिनी - पिता आदि को प्रतिबोध किया था । हमारे मत से बीच में कयंगला निवासी स्कन्धक कात्यायन का बोध भी इसी विहार में हुआ था और अगला वर्षावास भी निकटस्थ केन्द्र वाणिज्यग्राम में ही हुआ था । (१२) 'ख' और 'ग' दोनों चरित्रों के अभिप्राय से श्रावस्ती के बाद भगवान् फिर कौशाम्बी गये थे और चन्द्र-सूर्य का अवतरण हुआ था । हमारे विचारानुसार श्रावस्ती से सीधे कौशाम्बी नहीं किन्तु वाणिज्यग्राम में वर्षावास पूरा करने के बाद वहां गये थे । उक्त दोनों चरित्रों के मत से भगवान् कौशाम्बी से फिर श्रावस्ती गये और गोशालक का उपद्रव हुआ था, परन्तु हमारी राय में कौशाम्बी से भगवान् राजगृह गये For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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