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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૫૪ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ કાતિ ક थे और वर्षावास भी वहीं किया था, क्यों कि गोशालक का उपद्रव, समय के हिसाब से मार्गशीर्ष मास का बनाव सिद्ध हुआ है । इस से यह तो मानना ही पडेगा कि भगवान् कौशाम्बी से सीधे ही श्रावस्ती नहीं गये थे, इस दशा में हमें यही मानना चाहिये कि कौशाम्बी से वे राजगृह गये होंगे और वर्षावास वहीं किया होगा । (१३) राजगृह से मार्गशिर महीने में श्रावस्ती जा कर भगवान् गोशालक के विरुद्ध व्याख्यान नहीं दे सकते थे, दूसरा गोशालकवाली घटना भगवान के केवलिजीवन के चौदहवें वर्ष में घटी थी तब भगवान को अभी तेरहवां वर्ष ही चलता था, इस दशा में राजगृह से भी भगवान का श्रावस्ती की तरफ जाना संगत नहीं होता । यद्यपि 'ग' चरित्र केवलि - अवस्था में भगवान के मिथिला जाने का कहीं उल्लेख ही नहीं किया, और 'ख' ने सिर्फ एक ही बार उन के मिथिला जाने के संबन्ध में उल्लेख किया है, परन्तु भगवान ने अपने केवलिजीवन के ६ छः वर्षावास मिथिला में बीताये थे यह देखते भगवान् महावीर मिथिला में कितने विचरे होंगे इस का अनुमान करना मुश्किल नहीं है । इन सब आधारों पर से हमारा निश्चित मत है कि राजगृह के बाद भगवान् मिथिला की तरफ विचरे थे और वर्षावास भी वहीं किया था । (१४) वर्षाकाल के बाद भगवान् मिथिला से अंगदेश की तरफ विचरे थे, क्यों कि उन दिनों वैशाली कोणिक की युद्धस्थली बनी हुई थी। राजगृह से मगध का राज्यासन चम्पा को चला जाने से उन दिनों चम्पा ही सब का लक्ष्यबिन्दु बनी हुई थी । सूत्रों में भी उल्लेख मिलते हैं कि जिस समय मगधराज कोणिक वैशालीपति चेटक के साथ घमासान युद्ध कर रहा था, भगवान् महावीर चम्पा में विचरते थे । कालकुमार आदि श्रेणिक के दश पुत्रों के युद्ध में काम आने के समाचार भगवान के ही मुख से उन की माताओंने सुने थे । यद्यपि चम्पा भी भगवान का विशिष्ट विहारक्षेत्र था, तथापि उस की वर्षावासयोग्य केन्द्रो में गणना नहीं थी, इस कारण वर्षावास भगवान ने वापस मिथिला में जा कर किया था । (१५) वर्षावास उतरते ही भगवान् श्रावस्ती की तरफ विचरे और श्रावस्ती के कोकोद्यान में गोशालक के साथ तकरार हुई थी । उस के बाद में भी भगवान् उसी प्रदेश में विचरे थे । छठे महीने वे मेंढियगाम के सालकोष्टक में सख्त बीमार थे मार्गशीर्ष महीने में भगवान पर गोशालक ने तेजोलेश्या डाली थी और उस के असर से उनके शरीर में जो दाहज्वर और वर्चोव्याधि उत्पन्न हुई थी वह जेठ महीने में पराकाष्ठा For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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