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૧૫ર
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
કાર્તિક उक्त चरित्रों के कथनानुसार आलभिया से भगवान का विहार काम्पिप की तरफ होता है, परन्तु इतने विहार के बाद आलभिया से राजगृह न जाकर भगवान् काम्पिल्य की तरफ विचरें यह बात हृदय कबूल नहीं करता । चरित्रों का मत आनन्दादि दश ही श्रावकों का वर्णन एक सिलसिले में करने का होने से उन्हेांने आलभिया के बाद भगवान का काम्पिल्प जाना लिखा है, परन्तु वास्तव में वे आलभिया से राजगृह गये हेांगे, क्योंकि एक तो अन्य केन्द्रों से वह निकट पडता था, दूसरा वहां निम्रन्थ-प्रवचन का प्रचार करने का अनुकूल समय था, सपत्नीक श्रेणिक और उनके पुत्रों की भगवान के ऊपर अनन्य श्रद्धा हो चुकी थी, पिछले दा वर्षावासों में उन्हें वहां पर्याप्त लाभ मिल चुका था। इन बातों पर खयाल करने से यही कहना पड़ता है कि आलभिया से भगवान का राजगृह जाना ही युक्तिसंगत है । श्रेणिक ने भगवान के केवलिजीवन के १० वर्ष भी पूरे नहीं देखे थे फिरभी राजगृह के अधिकांश समवसरणों के प्रसंगों में श्रेणिक का नामोल्लेख मिलता है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि श्रेणिक के जीवित काल में भगवान् राजगृह में विशेष विचरे थे । इस दशा में आलभिया में चुल्लशतक को प्रतिबोध देने के बाद भगवान का राजगृह जाना और दो एक वर्षावास वहां करना बिल्कुल स्वाभाविक प्रतीत होता है।
(७) छठे वर्षावास के दर्मियान राजगृह में मंकाती आदि समृद्र गृहस्थों की दीक्षाओं से तथा अपनी भावि गति के श्रवण से श्रेणिक के मन पर इतना भारी असर पडा था कि उसने नगरजनों को ही नहीं, अपने कुटंबीजनों को भी दीक्षा की आम परवानगी दे दी थी। भगवान ने इस अवसर को लाभजनक पाया और द्वितीय वर्षावास भी राजगृह में करके अपनी उपदेश धारा चालू रक्खी थी। इसका परिणाम जो आया वह प्रत्यक्ष है । श्रेणिक के २१ पुत्रों और १३ रानियों ने एक साथ श्रमणधर्म की दीक्षा ली, और संख्याबद्ध नागरिक जनों ने श्रमण और गृहस्थ-धर्म का स्वीकार किया, यह परिणाम बताता है कि भगवान ने राजगृह में कितनी स्थिरता की होगी।
(८) 'ग' चरित्र के अभिप्राय से भगवान् राजगृह से विहार कर कौशाम्बी गये थे और मृगावती आदि को दीक्षा दी थी। हमारे विचार से वे उपर्युक्त दो वर्षावास राजगृह में करके ही कौशम्बी गये थे और मृगावती, अंगारवती आदि को दीक्षा देकर विदेह की तरफ विचरे थे । 'ग' के मत से यह कौशाम्बी का प्रथम समवसरण था । इसी कारण से उन्होंने आनन्दादि श्रावक-प्रतिबोध का वर्णन इसके बाद किया है, परन्तु वास्तव में जिस समवसरण में मृगावती की दीक्षा हुई थी वह कौशाम्बी का द्वितीय
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