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મહાવીરચરિત્રમીમાંસા तटस्थित एक नगर था । महावीर के गोदावरी तट तक विचरने का अन्य कोई उल्लेख न होने से यह — पोतनपुर' तामलिप्ति अथवा अन्य कोई नगर होना चाहिए, अथवा तो आवश्यकचूार्ण के मतानुसार प्रसन्नचन्द्र क्षितिप्रतिष्ठित नगर का ही राजा होना चाहिए । यह 'क्षितिप्रतिष्टित' शब्द संभवतः प्रयाग के निकटवर्ती प्राचीन 'प्रतिष्ठान' नगर के लिए प्रयुक्त हुआ होगा।
इसी सिलसिले में 'ख' ने वीतभय के राजा उदायन आदि की दीक्षाओं का भी उल्लेख किया है, परन्तु वस्तुतः उदायन की दीक्षा इसके बहुत पहले की घटना है।
(१०) 'ख' के अनुसार फिर भगवान् राजगृह जाते हैं और श्रेणिक दीक्षा सम्बन्धी अपनी आम आज्ञा की उद्घोषणा करता है, परन्तु वस्तुतः यह उद्घोषणा बहुत पहले की घटना है। इस समय तो श्रेणिक को संसार से बिदा हुए भी पर्याप्त समय हो चुका था।
(११) 'ख' गागलि आदि की दीक्षा के पहले ही गौतम को केवलज्ञान के विलम्ब से होनेवाली अधृति का वर्णन करता है, जब कि यह बात गागलि आदि की दीक्षा और केवलज्ञान के बाद की है।
(१२) 'ख' के मत से अभयकुमार, धन्यक, शालिभद्र, स्कन्धक की दीक्षायें राजगृह के आखिरी समवसरण में हुई थीं, और 'ग' के अभिप्राय से इन दीक्षाओं के बाद भगवान् दो बार फिर राजगृह गये थे और क्रमश: रौहिणेय तथा अभयकुमार को दीक्षा दी थी। परन्तु वास्तव में ये दीक्षायें भी बहुत पहले, श्रेणिक के जीवितकाल में ही, हो चुकी थीं। - स्कन्धक कात्यायन की दीक्षा श्रावस्ती के निकट कचंगला में हुई थी और १२ वर्ष के बाद उन्होंने गजगृह के पास विपुल पर्वत पर अनशन किया था, जिस समय भगवान् महावीर भी राजगृह के गुणशील चैत्य में विराजमान थे।
धन्य, शालिभद्रादि के अनशनकाल में भी भगवान् राजगृह में ही थे और राजा श्रेणिक तब तक जीवित थे, इस से सिद्ध है कि पूर्वोक्त दीक्षायें बहुत पहले ही हो चुकी थीं।
(१३) 'ख' के अभिप्राय से राजगृह से अन्तिम विहार कर के भगवान् मिथिला पधारे थे और वहां दुष्पमा काल का स्वरूप-निरूपण किया था। परन्तु 'ग' के विचार से यह 'दुष्पमा-स्वरूप-निरूपण' पावा मध्यमा में किया गया था। इस प्रकार इन दोनों
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