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કાતિક
श्री सत्य प्रास 'ग' का गोशालकवाली घटना के बाद प्रसन्नचन्द्र की दीक्षा का प्रसंग वर्णन ठीक नहीं जंचता, क्योंकि श्रेणिक के जीवित काल में प्रसन्नचन्द्र दीक्षित ही नहीं गीतार्थ हो एकाकी विहारी हो चुके थे, जब कि श्रेणिक का जीवनकाल गोशालकवाली घटना के पहले ही समाप्त हो चुका था। इस दशा में प्रसन्नचन्द्र की दीक्षा का प्रसंग बहुत पहले आना चाहिये था।
.. (७) 'ख' के अनुसार भगवान के राजगृह आने का यह पहला ही प्रसंग है, परन्तु 'ख' लेखक को यह सोचना चाहिए था कि तब तक भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुए कम से कमे १५ वर्ष हो चुके थे। राजगृह जैसे नगर में वे इतने लंबे समय के बाद आयें यह बिल्कुल अस्वाभाविक है ।
'ग' श्रेणिक के सम्मुख भगवान के मुख से जम्बू के अवतार की बात कहलाता है, परन्तु सोचने की बात यह थी कि जिस वर्ष में भगवान् मोक्ष प्राप्त हुए थे उसी वर्ष में १६ बर्ष की अवस्था में जम्बू के सुधर्मा गणधर के निकट दीक्षा लेने का पट्टालियों में विधान है । इस दशा में जम्बू के जन्म पहले की बात भगवान के केवलीजीवन के चौदहवें वर्ष में पडती है, जब कि राजा श्रेणिक इस संसार से कभी बिदा हो चुके थे । 'ख' 'ग' दोनों के विचार से श्रेणिक उस समय जीवित थे, परन्तु ये दोनों ही गोशालक का वृत्तांत जो श्रेगिक के मरण के बाद को घटना है, इस के पूर्व हो लिख आये हैं । इस दशा में उस समय श्रेणिक को जीवित समझना एक अनिवार्य भूल कही जा सकती है।
(८) राजगृह से तामलिप्ति जाते हुए भगवान का 'हलि' ग्राम में ले जाना 'ख' का कहां तक ठीक है यह कहना कठिन है । क्यों कि 'ग' उन्हें मेंढिय ग्राम से इस ग्राम को होते हुए ‘पोतनपुर' ले जाता है। मंढियग्राम संभवतः श्रावस्ती के निकट कोई स्थान था तब तामलिप्ति राजगृह से दक्षिण-पूर्व में पूर्व समुद्र तट पर बस हुई बंगाल की एक प्राचीन नगरी थी। इस प्रकार 'हलि' ग्राम राजगृह से वायव्य में था या आग्नेय दिशा भाग में इसका ठीक निश्चय नहीं हो सकता। ... (९) 'ख' के अनुसार प्रसन्नचन्द्र 'तामलिप्ति' का राजा था परन्तु 'ग' प्रसन्नचन्द्र को 'पोतनपुर' का राजा लिखता है, तब आवश्यकचूर्णि के मत से प्रसन्नचन्द्र 'क्षितिप्रतिष्ठित' नगर का राजा था। इस हालत में प्रसन्नचन्द्र वास्तव में कहां का राजा था यह निश्चय होना कठिन हो जाता है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार पोतनपुर जिसका दूसरा नाम उन्हेांने 'पोतली' लिखा है, दक्षिणापथ में गोदावरी के
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