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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ૧૯૯૩ २७७ ભગવાન મહાવીર કે ભક્ત જન-ભૂપતિ थे। सब मिलकर इन १९ नरपतियों ने पावापुरी में जाकर भगवान् महावीर के पास उनके अन्तिम समय कार्तिक कृष्ण अमावास्या के दिन पौषध व्रत किया था। इससे सिद्ध है कि उक्त १९ नरेश भी भगवान महावीर के भक्तों में से थे। -(कल्पसूत्र ) (४) महाराजाधिराज उदाई - आप सिन्धु सौवीर के वीतभय पाटन के राजेश्वर थे । महासेनादि दश भूपति आपके शासन को शिरोधार्य करते थे। दशपुर के इतिहास में आपके अस्तित्व का उल्लेख स्पष्ट रूप से विद्यमान है। आपकी महाराज्ञी प्रभावती महाराज चेटक की पुत्री थी और उसके अन्तःपुर में भगवान् महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित थी, राजा और राणी हमेशां उसकी सेवा-पूजा करते थे। इतना ही क्यों महारागी प्रभावती और सम्राट् उदाई ने भगवान् महावीर के चरणों में भागवती जैन दीक्षा ग्रहण कर, अन्तिम राजर्षि पद को सुशोभित किया और मरणान्ते मोक्षपद को प्राप्त किया था। -(श्री भगवती सूत्र, श. १३-७) (५) महाराजा अलख नरेश----आप बडे ही वीर, साहसिक एवं बनारस नगर के नरेश थे और भगवान् महावीर के परम भक्त थे। आपने अपनी अन्तिमावस्था में भगवान् महावीर के पास जैन-धर्म की दीक्षा धारण कर अक्षय सुखों को प्राप्त किया था। -(अन्तगडदशांग सूत्र ) (६) महाराजा संयति-आप कपिलपुर के शासक थे । आप एक दिन मृग की शिकार को गए, वहां एक ध्यानावस्थित त्याग-मूर्ति मुनि को देखा। मुनि ने राजा को ऐसा उपदेश दिया कि वह भगवान् महावीर का परम भक्त बन गया, तथा भागवती जैन दीक्षा ग्रहण कर उसने अपना जन्म मरण मिटा दिया। -(उत्तराध्ययन सूत्र-१८) (७) महाराजा दर्शनभद्र - आप दशपुर नगराधिप थे। और भगवान् महावीर के परम भक्त थे । एक समय भगवान् महावीर दशपुर नगर के उद्यान में पधारे तो राजा के हृदय में भक्ति उमड पडी और उसने भगवान के वन्दन निमित्त ऐसा जुलूस बनवाया कि वैसा अन्य नरेशों ने उस समय शायद ही बनाया हो । पर अपनी ऋद्धि को देख राजा को जरा अभिमान हो आया कि, मेरे जैसा राजा क्या और भी भगवान का भक्त होगा ? इस भावों को सौधर्मेन्द्र जान गए और उन्हेांने ऐसा आश्चर्य जनक हस्तियों का दृश्य बनाया कि राजा का वह मान आत्म-कल्याण में परिणत हो गया। राजाने उसी समय दीक्षा ग्रहण की। फिर तो क्या था? इन्द्र ने आकर उन नूतन दीक्षित मुनि के चरणों में सिर झुकाया और कहा कि आपको धन्य है कि अपना मान For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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