SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ उन्होंने इसे केवल शरीर को क्षीण करना समझा, परन्तु महावीर भगवान की तपस्या में दृढता कुछ रहस्य रखती थी। उनका उद्देश्य शरीर को क्षीण करना नहीं, बल्कि शरीर और सब इन्द्रियों को काबू में करना था । भगवान् महावीर पर सैंकडो उपसर्ग हुए, अपार कष्टों को उन्हेांने सहन किया। कान में कील ठोके जाने और कीड़ीयों आदि द्वारा शरीर के छलनी होने आदि को घटनायें हमारे रोंगटे खड़े कर देती हैं । परन्तु सहिष्णु महावीर ने उनका खुशी खुशी स्वागत किया, उन्होंने घोर वेदनाओं पर भी उफ तक न की। कितना धैर्य ! . कितनी गम्भीरता ! यह वास्तव में था शरीर से सर्वथा मोह-त्याग ! - महावीर शक्ति के भण्डार थे, यदि वे चाहते तो उपसर्ग करनेवालों को अच्छी तरह दण्ड दे सकते थे। - भगवान की अतुल्य तपस्या से उनकी सहनशक्ति का पूरा परिचय मिलता है। बोद्ध ग्रन्थों में भी भगवान् महावीर को दीर्घ तपस्वी कहा गया है। भगवान को केवलज्ञान हो गया, उसके बाद उन्होंने उपदेश का द्वार सबके लिये खोल दिया; ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, स्त्री हो या पुरुष, उपदेश सबके लिये समान है। उनका उपदेश सम्प्रदाय या वर्णविशेष के कल्याण के लिये ही नहीं था, बल्कि विश्व के प्राणी मात्र के लिये कल्याणकारी था। भगवान् वीर के उपदेश में जीवन था, आकर्षण शक्ति थी, जनता स्वयं ही उपदेश सुनने आती थी। भगवान् वीर के सत्योपदेश ने जनता को इतना आकर्षित किया कि, "हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गछे जैनमन्दिरम् " कहनेवाला ब्राह्मणवर्ग भगवान् वीर का शिष्य हुआ। उनका प्रथम उपदेश यद्यपि निरर्थक हुआ, उससे किसी का हृदय-परिवर्तन न हुआ, ऐसा शास्त्रों में कहा है तथापि वीर महावीर निराश नहीं हुए। उनके उपदेश में किसी मत का खण्डन न था, बल्कि यथार्थ तत्व भरा था। महावीर भगवान ने अपने उपदेश में कहा " पुरिसा तुममेव तुम मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि" .. हे पुरुष ! तू स्वयं ही तेरा मित्र है, बाहर का मित्र किस लिये चाहता है ? - भगवान् वार का उपदेश सुनकर बडे बडे दिग्गज विद्वान भी उनके शिष्य बने । उनके शिष्य-समुदाय में ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि सभी जातियों के लोग सम्मिलित हुए। For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy