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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ ભગવાન મહાવીર કા દિવ્ય જીવન भगवान् वीर का जन्म-नाम वर्धमान रखा गया था परन्तु ऐसा मालूम होता है क भगवान् वीर अपनी वीरताओं के कारण ही महावीर कहलाने लगे। उन्होंने अपने जीवन में जो भी कार्य किये, वे असाधारण थे । अपार कष्टों को साधारण शरीर सहन नहीं कर सकता, भगवान की तपस्याओं और उपसगों से हम इतना अनुमान लगा सकते हैं के उनका देह सुदृढ था "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" शरीर, धर्मका सर्व प्रथम साधन है । यद्यपि भगवान् वीर की दिनचर्या का वर्णन विस्तृत रूप में नहीं मिलता, तथापि कल्यसूत्र में उनके पिता सिद्धार्थ के जिन दैनिक कृत्यों का वर्णन है, उनमें व्यायाम आदिक शरीर साधक कृत्य भी, मुख्य रूप से वर्णित हैं । भगवान् वीर भी अपने पिता के अनुरूप उन शरीर-साधक कृत्यों को करते हों और उन्होंने भविष्य के धर्म-साधन के लिये अपने शरीर को तैय्यार कर लिया हो इस में आश्चर्य नहीं । इस प्रकार उन्होंने गृहस्थ के लिये, शरीर साधना का भी, आदर्श रखा। २८ वर्ष की अवस्था में महावीर के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया, और महावीर दीक्षा के लिये तैयार हो गये, क्योंकि उनका पूर्व अभिग्रह पूर्ण हो चुका था परन्तु उस समय उनके बड़े भाई नन्दिवर्द्धन के उन्हें यह कहने पर कि " अभी तो माता-पिता के स्वर्गवास का दुःख कम नहीं हुआ जिस पर आपके संसार-त्याग का मुझे और भी असह्य कष्ट होगा," भगवान् वीर ने बड़े भाई के प्रति भी अपने कर्तव्य का विचार किया, और उनकी आज्ञा स्वीकार कर दो वर्ष के लिये दीक्षा का विचार स्थगित कर दिया । भगवान् वीर ने संस्कृत भाषा को छोड कर मागधी भाषा में, जो कि एक प्रकार से मगध देश की प्रान्तीय भाषा थी, अपना उपदेश दिया, क्योंकि उस समय इस भाषा को सभी लोग भलीभांति समझते थे । भगवान् वीर ने संस्कृत का हठ न करके प्राकृतमागधी में इस लिये ही उपदेश दिया, कि इससे अधिक से अधिक लोग लाभ उठा सकेंगे। यह उनकी समयोपयोगी विचार-शक्ति और दूर दर्शिता थी। परन्तु हां, जिस बात को महावीर उचित-सत्य मानते थे उसे अपार कष्ट सहन करने पर भी छोडते न थे । भगवान् महावीर ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर कष्ट सहन करके भी महीनों और वर्षों तपस्या में लो रहे । उनके समकालीन महात्मा बुद् ने तपस्या प्रारंभ तो की, परन्तु कुछ समय के बाद उस मार्ग को कठिन समझकर छोड दिया । For Private And Personal Use Only
SR No.521516
Book TitleJain Satyaprakash 1936 11 12 SrNo 16 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages231
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size102 MB
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