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૧૯૯૨
દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બનેં? इसके अतिरिक्त श्री गौतमस्वामी गणधरकृत प्रतिक्रमण बतलाया और उस पाठ में भी पांच प्रकार के वस्त्र का निषेध लिखा ।
श्रुतावतार में "आ० पद्मनंदि (कुन्दकुन्द) ने षखंडागम और कषायप्रामृत की परिकर्म-टीका रची" ऐसा उल्लेख है । यद्यपि वह परिकर्म आज अनुपलब्ध है अतः उसके लिये कुछ विचार नहीं किया जा सकता । किन्तु श्र० बे० शि० नं. १०५, श्लोक २३.२५ को प्रमाणभूत मानकर षट्खंडागम के विधाता आ० पुष्पदंत और आ० भूतबल्ली को आ० गुगभद्र, जिन्हेनि वि० सं० ९५५ में उत्तरपुराण समाप्त किया है, उनके शिष्य माने जाय तो परिकम रचना का उल्लेख बिलकुल निराधार हो जाता है।
यों तो उपर लिखित सब बातें संदिग्ध हैं, फिर भी शिलालेखों से उपलब्ध प्रमाणों की ओर गज--निमिलिका न बताकर उस पर विचारविनिमय करना अनिवार्य होता है। यहां एक बात जरुर खटकती है :---
अग्वंयो, श्रुतावतार और द्वितीय श्रुतावतार में दिगम्बर सम्मत जिनागम के लोप के पश्चात बने हुए दिगम्बर शास्त्रों का प्रामाणिक इतिहास दिया है । इसमें वीरनि० सं० १३४३ यानी महाधवला की समाशि तक का इतिहास मिलता है । यदि इस समय तक कुन्दकुन्द का कोई भी ग्रन्थ होता तो जरूर उस ग्रन्थ का नाम लिख लिया जाता । किन्तु आश्चर्य है कि श्रुत के इतिहास में आपके ग्रन्थ का नाम तक नहीं है । क्या ऐसी स्थिति में वे ग्रन्थ आप की कृति माने जाय ? क्या वे इतिहासविधाता ऐसे महत्त्वपूर्ण पुरुष--दि० आचार्य के ग्रन्थे। से अनभिज्ञ होंगे? या आपके ये ग्रन्थ शास्त्रानुसार नहीं माने जाते होंगे ?
टीका-वृत्तिकारों ने भी आपके ग्रन्थों पर इतनी ही लापरवाई बताई है। ऐसे गौतमम्बामी के समान ग्रन्थकता के ग्रंथों पर सब से पहले टीकायें हो जानी चाहिये थी। परन्तु देखने से पता लगता है कि प्राचीन से प्राचीन आ० अमृतचन्द्र ने विक्रम की ११ वी शताब्दी में आपके ग्रन्थपर टीका की, उनके कई ग्रन्थ बिना टीका हो विद्यमान हैं। आपकी तारीफ में जो जो शिलालेख मिलते हैं वे सभी विक्रमकी ११ वी शताब्दी से पीछे के हैं। पट्टावलीयां भी उस समय के बाद की हैं । न मालूम इन सभी प्रमाणों से क्या समझना ?
वास्तव में आ० कुन्दकुन्द दिगम्बर समाज में विक्रम की ११ वी शताब्दी से आजतक सर्वश्रेष्ठ आचार्य माने जाते हैं, इस में किसीका भी मतभेद न होगा।
आपकी ग्रन्थ--सृष्टि विस्तृत संख्या में उपलब्ध है । मगर उनमें आपने बनाये
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