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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mu tane D ६० શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ભાદ્રપદ नया मत चलानेवाला ईश्वर के नाम से नयी नयी बातें बनाता है । ___ और यहां वास्तव में ऐसा ही हुआ है। फिर भी यह निरपवाद मानना पडता है कि---आ० कुन्दकुन्द का सिद्धांत ही दिगम्बर--समाज के लिए तीर्थंकरवाणो यानी आप्त वचन है। आपने जो कुछ रचा है उसमें अधिकांश भगवान् सुधर्म गगधर प्रणीत, उपलब्ध असली जिनागम के अवतरण हैं, और सिर्फ साधु के वस्त्र, पात्र व स्त्रीमुक्ति वगैरह के पाट उडा दिये हैं । बस्त्र के लिये तो यहां तक लिख दिया है कि उसको पढ़ कर कोई भी विद्वान ग्रन्थरचना के उद्देश को पहिचान लेता है। एक दो प्रमाण देखें --पांचवे महाव्रत “ अपरिग्रह-अमूर्छा" के अनुसार “ निर्ग्रन्थता" साधु का लक्षण माना जाता है । आ० कुन्दकन्द ने रामसवृत्ति से दर्शनप्राभृत वगैरह ग्रन्थों में " वस्त्ररहितता " को ही साधु का लक्षण लिख दिया । ५१ - श्री आचारांगसूत्र में जैन श्रमणों के लिये ५ प्रकार के वस्त्र को आज्ञा है । सभी साधु उस आज्ञा की तामील करते थे-करते हैं। आ० कुन्दकन्द ने लिगप्राभूत में उसके प्रतिवाद में पांच प्रकार के वस्त्रा का ही निषेध किया। सामान्यरूप से वस्त्रों के निषेध के बजाय विशेषरूप से पांच प्रकार के ही वस्त्रों का निपेध करना, इससे ग्रन्थ निर्माता का मानस प्रत्यक्ष होता है । यही मानस नवीन मत को जड़ है। ५१ श्रमण भगवान् महावीर के समय के बौद्ध ग्रन्थों में जनसाधु निन्थ नाम से संकेतित किये गये हैं, जैन निम्रन्थों के वस्त्र एवं पात्र के भी उल्लेख किये हैं, अतः वि० सं० १३९ तक जैन श्रमण-निर्ग्रन्थ, वस्त्रवाले व पात्र सहित थे -- आबरसहित-सांबर थे । वि. सं. १३९ में दिगम्बर सम्प्रदाय--दिशा को ही अंबर माननेवाला निकला । निर्ग्रन्थ के बजाय "दिगम्बर" शब्द में अभिमान लिया जाय, और नाम में भी “अंबर” शब्द को प्रधान रखकर उसका निषेध बताया जाय, यह सारा स्वरूप पूर्व के जनमहर्षियों की साम्बर दशा का ( खास करके श्वेतांबर दशा का ) सूचक है। बाद के जैनेतर ग्रन्थकारों ने जैनसाधुओं का समुदाय देखकर “निनन्य" शब्द के स्थान पर “ दिगम्बर", "नम्नाट” इत्यादि लिखना शुरू कर दिया । जैनेतर ग्रन्थ वि० सं० १३९ से पहले के जन साधुओं को “ निर्ग्रन्थ" बताते हैं, और बाद के साधुओं को "विवसन" बताते हैं। सारांश यह है कि वि० सं० १३९ पर्यंत जैन श्रमण वस्त्र पहने या न पहने, इसका कोई एकांत आग्रह नहीं था । मुनि शिवभूति और आ० कुन्दकुन्द ने भ० सीमंधर स्वामी की गवाही बताकर वस्त्र का एकांत निषेध किया, नग्नपना स्वीकारा और “ निर्ग्रन्थ" के बजाय “ दीगम्वर' उपाधि स्वीकार की । तब से वे निग्रन्थ नहीं किन्तु दिगम्बर कहे जाते है । पीच्छी और कमण्डलु का स्वीकार शिवभूति ने नहीं किन्तु आ० कुन्दकुन्द ने ही किया है । For Private And Personal Use Only
SR No.521514
Book TitleJain Satyaprakash 1936 08 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1936
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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