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૧૯૯૨ દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બને ?
૫૯ दिव्य ज्ञान से जो नया मत चलाया, उसके अनुकूल शास्त्रों की आवश्यकता थी आ० कुन्दकुन्दने नये शास्त्र भी बनाये । श्र0 बे० शि० नं० १०५ में लिखा है कि (शक सं. १३२०)
शब्दे श्री पूज्यपादः सकलविमतजित् तर्कतंत्रेषु देवः ।
सिद्धांते सत्यरूपे जिनविनिगदिते गौतमः कौण्डकुन्दः ॥ ४० ॥
अर्थात् आ० कुन्दकुन्द तीर्थंकर के सिद्धांत के अवतरण करने में श्री गौतम गणधर के समान थे, अर्थात् गौतम स्वामीने कहा था वही कई शताब्दी के बीतने के बाद आ० कुन्दकुन्द ने कहा । बीच के आचार्य ऐसे सत्य-सिद्धांत-देशक नहीं थे। श्री गौतमस्वामी के पश्चात् ये ही महान् सिद्धांतवेदी हैं । उपर के लेख का इस प्रकार का भाव है।
श्र० बे० शि० नं० ५४ श्लोक ५ के "चके श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् " चरण से भी सिद्ध होता है कि आ० कुन्दकुन्द ने बडा परिश्रम उठाकर भरत क्षेत्र में दिगम्बर शास्त्रों की नीव डाली।
__परन्तु प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-वीर नि०सं० ६८३ में जिनवाणी का सर्वथा लोप हो चुका था, बाद के दि० आचार्य जिनवाणी के अभाव में यथेच्छ धर्म-पंथ चलाते थे । न किसीको श्रुतज्ञान था न किसीको प्रत्यक्ष ज्ञान था । ऐसे युग में आ० कुन्दकुन्द हुए। आपको भी न अवधि या मनःपर्यव ज्ञान था, न पूर्वका ज्ञान था, न अंग ज्ञान था, न आचारांग का ज्ञान था । ऐसी परिस्थिति में आपने नये शास्त्र कैसे बनाये ?
दिगम्बर आचार्य इसका उत्तर देते हैं कि--आ० कुन्दकुन्द को चारण- ऋद्धि प्राप्त हुई थी। जैसे "श्रीकोण्डकुन्दनामाभूच्चतुरंगुलचारणः ।"
__-श्र०बे०शि०नं० १३९, श्लोक-२, शक सं० १०४१ ॥ इत्यादि अनेक प्रमाणों से वे चारण-ऋद्धिवाले माने जाते हैं। आपने चारणऋद्धि से भगवान् सीमंधर स्वामी के पास जा कर दिव्य ज्ञान प्राप्त किया और नये शास्त्र बनवाये, नया मत प्रकाशित किया एवं गृद्ध-पिच्छिका भी स्वीकार की। भला श्री सीमंधर स्वामी तीर्थंकर की आज्ञानुसार जो कुछ किया गया हो उसमें तनीक भी विसंवाद कैसे हो सकता है ?"
पाठक समज गये होंगे कि “ आ० कुन्दकुन्दने चार अंगुल प्रमाण चारणलब्धि से महाविदेह क्षेत्र में गमन किया, बडे बडे पहाड-क्षेत्रों का उल्लंधन किया, तीर्थंकर से दिव्य ज्ञान पाया और यहां आकर जो पुराणा धर्म था उसको उठाकर नया मत चलाया, नया लिंग बनाया और नया सिद्धांत स्थापित किया ।" ये सब बातें खुदा से खरीता लानेवाले पयगंबर की घटनाओं से मिलती जुलती सो प्रतीत होती हैं ।
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