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दिगम्बर शास्त्र कैसे बनें ?
लेखक:-मुनिराज दर्शनविजयजी
(गतांकसे क्रमशः) आजीवकमतदर्शक बौद्धप्रमाण, अंगके दूसरे सुत्त विभाग के २२ हलायुधकृत अभिधान रत्नमाला सूत्रोंका वर्णन, और दिगम्बर ग्रन्थ ( रचना सन् ९५० इस्वी०), विरंचि- प्रशस्ति२८ अपने को हठात् मनाते हैं पुरमें उत्कीर्ण १३वी शताब्दीका कि-आजीवक त्रिराशिक ओर दिगम्बर शिलालेख, तामिल साहित्य, तामिल ये सभी एक अर्थके सूचक हैं ।२९ शब्दकोष, सूत्रकूतांग टीका, दृष्टिवाद (जैन-साहित्य-संशोधक वर्ष ३,
२८ कुन्दकुन्दान्वये ख्याते, ख्यातो देशिगणाग्रणीः ॥
बभूव संघाधिपः श्रीमान् , पद्मनन्दी त्रि-राशिकः ॥ ४ ॥ २९ प्रोफेसर होरालालजी दिगम्बरजैनका मत है कि-दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों में कई बारीकियोंमें मतभेद है, पर इन भेदोंसे ही मूल बातोंकी पुष्टि होती है क्यों कि उनसे यह सिद्ध होता है कि एक मत दूसरे मतकी नकल मात्र नहीं हैं, व मूल बातें दोनोंके ग्रन्थों में प्राचीनकालसे चली आती हैं।
-( जैन शिलालेखसंग्रह पृष्ठ ६७) उपर लिखित प्रोफेसरके मतके अनुसार श्वेताम्बर मत प्राचीन है, एवं दिगम्बर मत भी। दिगम्बर मत की प्राचीनता आजीवक त्रैराशिक वगैरह मतोंको आभारी है ।
मतभेदके लिए श्रीयुत् नथुरामजी प्रेमी (दि० जैन ) ने लिखा ह कि
" सौ दो सौ वर्षों में फिर नई परिस्थितियां और आवश्यकताओं के कारण उसमें भी नया भेद जन्म ले लेता है"
" इस प्रकारके प्रयत्नों से सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि प्रायः प्रत्येक धर्मके अनुयायी अपने धर्मके मूल और प्राचीन सिद्धांतोंसे बहुत दूर नहीं भटकने पाते,
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