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श्री डॉ. सुदीप जी जैन !
एक विशेष पत्र
सस्नेह जयजिनेन्द्र |
पत्र मिला। आपको जो प्राकृतभाषा और साहित्य-विषयक ‘राष्ट्रपति-पुरस्कार' मिला है, यह आपकी विवेकपूर्वक तपश्चर्या का परिणाम है । उसमें परमपूज्य आचार्यश्री का शुभाशीर्वाद एवं मार्गदर्शन रहा है । भगवान् पार्श्वनाथ और श्रीराम को जो जगत्पूज्यता प्राप्त हुई, उसमें उनका घोर उपसर्ग आने पर भी अविचलित रहना ही कारण है। उन्हीं के लिए एक श्लोक प्रसिद्ध है
आपद्गतः खलु महाशय चक्रवर्ती, विस्तारयत्यकृतपूर्वमुदारभावम् । कालागुरुर्दहनमध्यगत: समन्तात्, लोकोत्तरं परिमलं प्रकटीकरोति ।। इसका सरल हिन्दी-भावानुवाद निम्नप्रकार है
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सुर्खरू होता है इन्सान, आफतें आने के बाद । रंग लाती है हिना, पत्थर पे घिस जाने के बाद ।।
इन्दौर 24.3.2003
श्लोक में 'अगुरु' के जलने से सुगंध-प्रसारण का उदाहरण है। नीचे उदाहरण हिना के घिसने से सुगंध के फैलने का है ।
मुझे याद आती है शौरसेनी प्राकृत के महत्त्व को जनता के समक्ष प्रगट करने के लिए आप लोगों ने कितना परिश्रम किया और कटु आलोचनाओं का सामना किया। आज भी विद्वान् तीर्थंकर की वाणी को सर्वभाषामय न मानकर अर्द्धमागधी नाम से ही उसे सिद्धकर श्वेताम्बर मत का महत्त्व घोषित करना चाहते हैं। डॉ. हीरालाल जी आदि के द्वारा प्रतिपादित 'दिगम्बराचार्यों के शास्त्रों की भाषा शौरसेनी है'. इस मत के आज भी ये विरोधी बने हुए हैं।
आपने शौरसेनी व्याकरण, साहित्य की पुस्तकें रचकर उन्हें दिल्ली के श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) में परमपूज्य आचार्यश्री की आज्ञा से पाठ्यक्रम में रखकर विद्यार्थी तैयार किये। क्या यह आपका कम परिश्रम है? आज भी इसी कार्य में पत्रिका और विद्वानों में प्रचार द्वारा आपने जीवन को समर्पित कर सफलता की ओर अग्रसर हैं ।
इन सब कार्यों के परिणामस्वरूप यदि आपको राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया, तो इसमें क्या आश्चर्य है?
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गुणा: पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः ।
परमपूज्य आचार्यश्री से सविनय नमोऽस्तु ।
शुभाकांक्षी— नाथूलाल जैन
प्राकृतविद्या + जनवरी-जून 2003 (संयुक्तांक )