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आभमा
0 प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर, 2002 के अंक का आवरण-पृष्ठ एक सुन्दरतम जीवन का संकेत देता है, जिसमें न कोई बड़ा है न छोटा। समता का द्योतक है। मंगलाचरण श्री ऋषभदेव जी के चौबीस विशेषणों द्वारा वन्दना किए जाने पर विदित करता है कि वे अजेय महापुरुष थे, अत: उनको समादर से देखना ही योग्य होगा।
अंक का सम्पादकीय' धर्म के संबंध में पक्ष-विपक्षी संबंधी विवेचनात्मक पहल द्वारा वास्तविकता प्रकट करता है। धर्म के नाम पर विरोध और वैमनस्य पैदा कर साम्प्रदायिकता फैलाने वाले व्यक्तिविशेष, वर्गविशेष, जातिविशेष के प्रचारक कहे जा सकते हैं; परन्तु 'धर्मात्मा' नहीं समझे जा सकते। धर्मात्मा से तो किसी बात की पक्षपात की आशा करना ही व्यर्थ है, वह तो सबके 'जनहिताय' बात करता है- वह भी नि:स्वार्थ भावना से। ऐसा व्यक्ति परमपूज्य और आदर का पात्र होता है, तिरस्कार का नहीं। मानव का वह सच्चा हितैषी होता है और जीवन सार्थक बनाने हेतु ही उसकी भावना होती है— इसे कभी विस्मरण नहीं किया जाना चाहिए। वास्तव में यह चिन्तनीय विषय है।
'जगद्गुरु' के विभिन्न उदाहरणों द्वारा गुरु की महिमा का विवेचन बड़ी कुशलता से किया गया है। उसे सर्वोपरि समझा जाने का प्रयत्न सार्थक है। 'जैनधर्म में राष्ट्रधर्म की क्षमता विद्यमान है' जैन-परम्परा में आचार्यत्व' तथा 'जैनधर्म-दर्शनके अहिंसा विचार की प्रासंगिकता' संबंधी आलेख संक्षिप्त होकर भी सारगर्भित है, चिन्तन, मनन योग्य होकर ध्यान देने योग्य है। महावीर संबंधी वड्ढमाणचरिउ' एक नवीन ग्रंथ हमारे सम्मुख आता है— गंभीरता से विचार योग्य है। मिश्रीलाल गंगवाल जी का व्यक्तिपरक लेख उनके गुणों को जानने के लिए अच्छा है— इन्सानियत झलकती है। डॉ. जगदीश चन्द्र बसु का लेख भी ज्ञानवर्द्धक होकर आकृष्ट करता है। कातन्त्र और कच्चायन का तुलनात्मक अध्ययन' निसन्देह शोधपूर्ण लेख है, जो नवीनता के साथ विषय का विश्लेषण करता है। दर्शनशास्त्र अन्तर्मुखी बनाता है और प्रदर्शन बहुर्मखी', 'ज्ञान और विवेक' संक्षिप्त होते हुए भी ज्ञानवर्द्धक हैं। _ 'पुस्तक-समीक्षा' तथा 'समाचारदर्शन' सदैव की भाँति ध्यान देने योग्य होकर अनेक बातें सामने रखते हैं। अंकं की अन्य सामग्री भी सुन्दर होकर पठनीय है। सुप्रीम कोर्ट संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णय बरबस ध्यान आकृष्ट करता है। इसप्रकार अंक विविध पठनीय सामग्री से पूर्ण होकर कुशलता व दूरदर्शिता का प्रमाण है। अंक का आवरण-पृष्ठ जैनसमाज
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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