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________________ —ऐसा उल्लेख पाया जाता है। इस भाषण के बाद चाँदी का कुमकुम-करंडक देकर उनका सत्कार किया गया। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने अपने आपको स्त्री-शिक्षा के कार्य को समर्पित कर दिया। आगे चलकर इन्होंने ही हिंगणे-स्त्री-संस्था में 'मैनाबाई जैन श्राविकाश्रम' की नींव डाली। (1919) बाद की जैन-महिला-परिषदों में जरठबाला-विवाह, बालविवाह, नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह और दहेज आदि रूढ़ियों को विरोधी टीकात्मक-चर्चा द्वारा बंद करने की प्रथा शुरू की। इन प्रथाओं के दुष्परिणाम स्पष्ट करते हुए आण्णासाहब के सहकारी रा.ब. जाधव (1901) लिखते हैं- 'कोल्हापुर-संभाग में मराठा मूल के लोगों की बस्ती करीब 1 लाख है। उनमें 5 साल की उम्र के अंदर के सिर्फ 5 ही विवाहित हैं। किंतु 50 हजार जैन-बस्ती में 155 विवाह-संख्या हैं। कोल्हापुर और दक्षिण महाराष्ट्र संस्थानों में मूक-बधिरों की संख्या हिंदूओं से ज्यादा जैनसमाज में हैं। बस्ती कम होने के बावजूद जैनसमाज में उपजातियाँ अधिक हैं। नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह यह एक मूक-बधिरों की संख्या बढ़ने का संभाव्य-कारण है। कोल्हापुर-संभाग में पिछले 20 सालों में जैनमहिलाओं में कतई सुधार नहीं हुआ है। पुरुषों में हुआ, पर वह भी अत्यल्प। दक्षिण महाराष्ट्र के दूसरे संभागों में मूक-बधिरों की संख्या डेढ़ गुना बढ़ी है। इस संकट का मुकाबला करने के लिए बुरे-रिवाज बंद करने के उपाय जैनसमाज को जल्दी से जल्दी करने चाहिए। इस खतरे से ज्ञात आण्णासाहब जी ने पहले अधिवेशन में ही बाल-विवाह का तीव्र-निषेध किया। अलगे 1903 और 1904 की वार्षिक परिषदों में इस रूढ़ि से परावृत्त-पालकों का खुलेआम अभिनंदन किया गया। इतने पर आण्णासाहब जी कहाँ रुकनेवाले थे? कोल्हापुर के सरकारी अस्पताल की पहली स्त्री-धन्वंतरी और समाजसुधारिका डॉ. कृष्णाबाई केळवकर जी को उन्होंने स्तवनिधि के 1905 के वार्षिक अधिवेशन में आमंत्रित किया। उन्होंने प्रौढ-विवाह के फायदों पर भाषण दिया और 21 वर्ष पहले पुरुष और 18 वर्ष पहले स्त्री विवाह के लिए अरोग्यदृष्ट्या कैसे अयोग्य है? – यह समझाने की पूरी कोशिश की। उत्तर-भारतीय जैनसमाज में इन सुधारणावादी-विचारों के विरोध में प्रतिक्रिया उभरी। अपने मुखपत्र 'जैनमित्र' में उन्होंने दक्षिण महाराष्ट्र जैनसभा के प्रौढ़-विवाह-आंदोलन का कड़ा विरोध किया। 'श्रीजिनविजय' के संपादक के रूप में 1905 के अंक में आण्णासाहब जी ने जैनमित्र' के विचारों पर जमकर हमला किया। - डॉ. केळवकर जी ने प्रकृति को हितकर-विवाह कालविचारपूर्वक कहा है। 'जैनमित्र' को शायद इस आशंका ने घेरा है कि डॉ. केळवकर जी सुधारणावादी है और इसीकारण उन्होंने दक्षिण भारत जैनसभा को इशारा किया हो। वैद्यकशास्त्र की दृष्टि से यह मत प्राचीन आर्य-वैद्य भी मानते थे तथा जैनशास्त्र का भी विरोध नहीं है। शरीरशास्त्र की दृष्टि से सोचना ज़रूरी है। सामाजिक हित-अहित की नींव पर ही पारिवारिक आचरण की इमारत खड़ी होनी चाहिए। फिर भी 'सुधारक' या 'दुर्धारक' शब्द का आडंबर न 00 80 प्राकृतविद्या+जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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