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________________ आधुनिक महाराष्ट्र को श्री आण्णासाहब लठ्ठे का परिचय अत्यंत अल्प है। 'कुरुंदवाड ' - संभाग में 1878 में जन्मे लट्ठे की प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं पर हुई। आगे उच्चशिक्षा के लिए पूना - बंबई में बस जाने पर, जाने-अनजाने में तत्कालीन सामाजिक विचार - प्रवाह का असर उन पर हुआ। अभ्यास और जिज्ञासा - वृत्ति से वैचारिक प्रगल्भता प्राप्त करने पर जानबूझकर वे छत्रपति शाहू जी के सामाजिक आंदोलन में शामिल हुए। 1907 से 1910 तक ‘राजाराम कॉलेज' में प्राध्यापक, 1911 से 1914 तक कोल्हापुर संभाग के शिक्षणाधिकारी, 1902 से 1914 तक छत्रपति शाहू जी के बोर्डिंग-आंदोलन के पक्के पुरस्कर्ता, 1915 सत्यशोधक - परिषदों के अध्यक्ष, 1921 से 1923 तक ब्राह्मणेतरआंदोलन के तत्त्वचिंतन-नेता, मार्गदर्शक, कार्यकर्त्ता, मध्यवर्ती कायदा कौन्सिल में ब्राह्मणेतरों के प्रतिनिधि आदि विविध-भूमिकाओं द्वारा ब्राह्मणेतर - आंदोलन और जैनसमाज-सुधार का कार्य वे बढ़ाते गये। भारत की आबादी के 10% जैन - आबादी दक्षिण महाराष्ट्र में (मुम्बई इलाके के सांगली, कोल्हापुर, बेलगाम, धारवाड ) रहती थी। शैक्षणिक सामाजिक व धार्मिक दृष्टिकोण से यह समाज अत्यंत पिछड़ा था। रूढ़ि और अंधश्रद्धा के प्राबल्य से पीड़ित समाज के सामाजिक, शैक्षणिक और धार्मिक विकास के लिए 3 अप्रैल, 1899 को 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा' की स्थापना 'स्तवनिधि' (कर्नाटक राज्य में अब) में हुई । श्री आण्णासाहब लट्ठे जी प्रमुख संस्थापक थे। इस सभा की स्थापना से ही महिलाओं की समस्याओं और आंदोलन से उनका संबंध आया। 19वीं सदी के अंतिम दशक में. पूना - मुंबई के शिक्षित युवकों पर महात्मा फुले जी के पश्चात् छत्रपति शाहू जी के विचारों का गहरा असर दिखाई पड़ता है। इनमें से एक आण्णासाहब भी थे । एक विशिष्ट समाज की स्त्री-विषयक समस्याओं और तदनुषंगिक सारी महिला - जाति की समस्याओं के चिंतन से आण्णासाहब जी की कृति में प्रगल्भता आने लगी । 'विशाळी अमावस यात्रा' के अवसर पर अधिकतर मात्रा में इकट्ठा होनेवाली महिलाओं में नवविचारों का आरोपण सहजसंभव था। इसी भूमिका द्वारा अपने सहकारी श्री आदिराज देवेंद्र उपाध्ये जी की पत्नी सौ. गोदूबाई उपाध्ये जी को 'स्त्री-शिक्षण' विषय पर निबंध पड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। वे बोलीं, “पति और पत्नी इस समाजरूप व्यक्ति के दाएं-बाएं अंग हैं । जिस समाज पुरुष ही पढ़-लिखकर आगे बढ़े और स्त्रियाँ मात्र अज्ञान से पिछड़ी रहें, उस समाज को अर्धांगवायु हुआ समझो। ऐसे समाज की उन्नति तो दूर की बात रही, दिन-ब-दिन उसका ह्रास ही होता रहेगा। इसलिए अपने जैनसमाज में स्त्री-शिक्षा के प्रयास कितने जरूरी है, यह आप अच्छी तरह जान चुके होंगे । स्त्री - शिक्षा के लिए यह समाज उचित राह से आंदोलन करने का यथाशक्ति यत्न करेगा।” के किसी भरी-पूरी सभा में 1899 में कोई महिला इतनी ठिठाई से 'स्त्री-शिक्षा' विषय पर निबंध पढ़ रही है — यह देखकर उपस्थित प्रेक्षक भौंचक्के रह गए। क्योंकि 1891 की जनगणना के कोल्हापुर के रिपोर्टनुसार 'जैनसमाज की पहली पढ़ी-लिखी औरत' प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2003 (संयुक्तांक ) 00 79
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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