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________________ घुट्टी पिलाती हुई लोरी कहती है- हे पुत्र ! तुम चैतन्यस्वरूप हो, सभी विभाव-भावों से पूर्णतया मुक्त हो, सभी कर्मों से रहित हो, सम्पूर्ण लोकालोक के ज्ञाता हो, परमोत्कृष्ट एक अखण्ड ज्ञान-दर्शनमय सहजशुद्धरूप जो परमात्मा का स्वरूप है, वह तुम स्वयं हो; अत: अपने परमात्मस्वरूप का ध्यान करो। हे पुत्र ! मन्दालसा के इन वाक्यों को अपने हृदय में धारण करो। इत्यष्टकर्या पुरतस्तनूजं विबोधनार्थं नर-नारिपूज्यम् । प्रावृज्य भीता भवभोगभावात् स्वकैस्तदाऽसौ सुगतिं प्रपेदे।। 9।। अर्थ :-- इन आठ श्लोकों के द्वारा माँ मन्दालसा ने अपने पुत्र कुन्दकुन्द के आगे उसके सद्बोधप्राप्ति के लिए उपदेश किया है, जिससे वह सांसारिक भोगों से भयभीत होकर समस्त नर-नारियों से पूज्य श्रमण-दीक्षा धारणकर सद्गति हो प्राप्त करे। . इत्यष्टकं पाप-पराङ्मुखो यो मन्दालसाया: भणति प्रमोदात् । स सद्गतिं श्रीशुभचन्द्रमासि संप्राप्य निर्वाणगतिं प्रपेदे।। 10।। अर्थ :- इसप्रकार जो भव्यजीव मन्दालसा द्वारा रचित इन आठ श्लोकमय स्तोत्र को पापों से पराङ्मुख होकर व हर्षपूर्वक पढ़ता है, वह श्री शुभचन्द्ररूप सद्गति को प्राप्त होकर क्रमश: मोक्ष को प्राप्त करता है। - - - ___ दिगम्बर-परम्परा में करणीय कार्य मैंने दिगम्बर-परम्परा की एक भी ऐसी संस्था नहीं देखी या सुनी कि जिसमें समग्र-दर्शनों का आमूल अध्ययन-चिंतन होता हो। या उसके प्रकाशित किये हुए बहुमूल्य प्राचीन-ग्रन्थों का संस्करण या अनुवाद ऐसा कोई नहीं देखा, जिसमें यह विदित हो कि उसके सम्पादकों या अनुवादकों ने उतनी विशालता व तटस्थता से उन मूलग्रन्थों के लेखकों की भाँति नहीं, तो उनके शतांश या सहस्रांश भी श्रम किया हो। ___अंत में दिगम्बर-परम्परा के सभी निष्णात और उदार पंडितों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे अब विशिष्ट शास्त्रीय अध्यवसाय में लगकर सर्व-संग्राह्य हिंदी-अनुवादों की बड़ी भारी कमी को जल्दी से जल्दी दूर करने में लग जाएँ और प्रस्तुर 'कुमुदचन्द्र' के संस्करण को भी भुला देने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण-ग्रन्थों का संस्करण तैयार करें। विद्याप्रिय और शास्त्रभक्त दिगम्बर-धनिकों से मेरा अनुरोध है कि वे ऐसे कार्यों में पंडित-मंडली को अधिक से अधिक सहयोग दें। -(सुखलाल संघवी, हिन्दू विश्वविद्यालय, दिनांक 26.4.38. न्यायकुमुदचन्द्रः', प्राक्कथन, पृष्ठ, X. XII) प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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