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परन्तु उनके अंत में शापवाचक और आशीर्वाचक —दो संस्कृत-पद्य हैं। इसप्रकार 'दक्षिण भारतीय पुरालेख-विद्या' में चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संस्कृत द्वारा प्राकृत का स्थान ग्रहण किया गया माना जा सकता है। मध्यकालीन अभिलेख
' मध्यकालीन जैन-अभिलेख प्राकृत में है, जिनमें प्रतिहार कक्कुक का 862 ई. का एक स्तम्भ पर टंकित इस अभिलेख में प्रतिहार-वंश की उत्पत्ति एवं नामावली के साथ राजा कक्कुक ने एक विशाल हाट-बाजार बनवाकर अपनी कीर्ति का विस्तार किया। मध्यकालीन कतिपय संस्कृत-लेखों में भी प्राकृत के नमूने मिलते हैं। एक अभिलेख लिखावट में परमार भोज (1000-55 ई.) के धार के अभिलेखों से बहुत साम्य रखता है। इसमें प्राकृत के विभिन्न प्रकार के नमूने हैं। धार के उपर्युक्त अभिलेखों में कूर्मशतक नामक प्राकृत-काव्य-ग्रन्थ से उद्धरण दिया गया है। यह ग्रन्थ परमार भोजकृत माना जाता है।
उपरोक्त सभी अभिलेखों के उल्लेख विभिन्न राजवंशों द्वारा प्राकृतभाषा को प्रदत्त राज्यश्रय तथा जनसामान्य से प्राप्त लोकप्रियता के सबल-प्रमाण हैं।
बौद्-दर्शन तथा अन्य भारतीय-दर्शन 'नास्तिक' और 'आस्तिक' नामों के प्रयोग के भीतर कोई गम्भीर विचारधारा नहीं है। वेद ही समग्र भारतीय-दर्शन नहीं है, अत: उसके आधार पर भारतीय-दर्शन का वर्गीकरण भी नहीं किया जा सकता। जिसप्रकार भारतीय दर्शन के विदेशी विद्यार्थी एक तटस्थ-द्रष्टा की तरह हमारी विचार-परम्पराओं को देखते हैं और उनका अध्ययन करते हैं, वैसा हम सम्भवत: नहीं कर सकते। हमारे हृदय के साथ उनका संयोग है और उनके अध्ययन का महत्त्व हमारे लिए केवल बौद्धिक न होकर रचनात्मक भी है। हमें भारतीय-दर्शन को जीवन में उतारना है; क्योंकि हम उसके प्रतिनिधि हैं। अत: इस आस्तिकवाद-नास्तिकवाद की खोखली आधार-भूमि की निर्मम-समीक्षा हमें करनी ही पड़ेगी।" – (बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, पृ. 188) ___"वेद-प्रामाण्य को हिन्दूधर्म का अव्यभिचारी-लक्षण भी माना और बौद्धों और जैनों को हिन्दूधर्म की परिधि के अन्दर भी लाने का प्रयत्न करना, ये दोनों काम साथ-साथ नहीं चल सकते। हमें अधिक उदार बनाने की आवश्यकता है। धर्म को छोड़कर हमें तात्त्विक-धरातल पर आना ही पड़ेगा और इस भूमि पर बैठकर ही हम देख सकेंगे कि 'नास्तिक' और 'आस्तिक्य' का विभेद वेद-प्रामाण्य के आधार पर करना बिल्कुल अनुपयुक्त है और इसमें आवश्यक-संशोधन की आवश्यकता है। सच बात तो यह है कि केवल जड़वादी चार्वाक दर्शन को छोड़कर और किसी भारतीय दर्शन को 'नास्तिक' कहा नहीं जा सकता।" – (वही, पृ. 189) ..
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प्राकृतविद्या + जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)