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________________ 0 जैन-इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है : भारतवर्ष का अध:पतन जैनधर्म के अहिंसा-सिद्धान्त के कारण नहीं हुआ था; बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। -रेवरेन्ज जे. स्टीवेन्सन महोदव . 0 जैनधर्म से पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है : जैनधर्म के सिद्धान्तों पर मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि सब जगह उनका पालन किया जाए, तो वह इस पृथ्वी को स्वर्ग बना देंगे। जहाँ-तहाँ शान्ति और आनन्द ही आनन्द होगा। -डॉ. चारो लोटा क्रौज, बर्लिन यूनिवर्सिटी . 0 यूरोपियन फ्लॉसफर जैनधर्म की सचाई पर नतमस्तक हैं : मैंने जैनधर्म को क्यों पसन्द किया? जैनधर्म हमें यह सिखाता है कि अपनी आत्मा को संसार के झंझटों से निकलकर हमेशा के लिए उनसे निजात किसप्रकार हासिल का जाए। जैन-असूलों ने मेरे हृदय को जीत लिया और मैंने जैन फ्लॉस्फी का स्वाध्याय शुरू कर दिया है। आजकल यूरोपियन फ्लासफर जैन फ्लॉस्फी के कायल हो रहे हैं, और जैनधर्म की सच्चाई के आगे मस्तक झुका रहे हैं। -Prof. (Dr.) Von Helmuth Von Clasenapp, Berlin University . जैनधर्म की प्राचीनता : जैनियों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गए हैं। भगवद्गीता के परिशिष्ट में श्रीयुत वरवे इसे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के भाई थे। जबकि जैनियों के 22वें तीर्थकर श्रीकृष्ण के समकालीन थे, तो शेष इक्कीस तीर्थकर श्रीकृष्ण के कितने वर्ष पहले होने चाहिए? -यह पाठक अनुमान कर सकते हैं। -डॉ. फहरर . 0 जैनधर्म की प्राचीनता : यूरोपियन ऐतिहासिक विद्वानों ने जैनधर्म का भली प्रकार स्वाध्याय नहीं किया, इसलिये उन्होंने महावीर स्वामी को जैनधर्म का स्थापक कहा है। हालाँकि यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो चुकी है कि वे अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर थे। इनसे पहले अन्य तेईस तीर्थंकर हुए, जिन्होंने अपने-अपने समय में जैनधर्म का प्रचार किया। -डॉ. एन.ए. बीसंट. ० जैनधर्म ही सच्चा और आदि धर्म है :नि:सन्देह जैनधर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है और यही मनुष्य मात्र का आदि-धर्म है। -मि. आवे जे.ए. डवाई मिशनरी . 0 अलौकिक महापुरुष भगवान् महावीर : भगवान् महावीर अलौकिक महापुरुष थे। " वे तपस्वियों में आदर्श, विचारकों में महान्, आत्म-विकास में अग्रसर दार्शनिक और उस समय की प्रचलित सभी विद्याओं में पारंगत थे। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से उन विद्याओं को रचनात्मक रूप देकर जनसमूह के समक्ष उपस्थित किया था। छ: द्रव्य-धर्मास्तिकाय (Fulcrum of Motion), अधर्मास्तिकाय (Fulcrum of Stationariness), काल (Time), आकाश (Space), पुद्गल (Matter) और जीव 0048 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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