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________________ देश-विदेश के प्रख्यात राजनेता, साहित्यकार, शिक्षाविद्, कलाकार और मानवतावादी गुरुदेव से भेंट करने आये दिन शांतिनिकेतन में आते ही रहते थे और हमें उनके सम्पर्क में आने का अवसर उपलब्ध होता रहता था । जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, शरत चन्द्र चटर्जी, गोपीनाथ, उदय शंकर जैसे कुछ उल्लेखनीय नाम हैं, जो मेरे समय में शांतिनिकेतन में पधारे। दीनबंधु सी. एफ. एण्ड्रयूज़ और बनारसीदास जी चतुर्वेदी तो आश्रम का अंग ही बन गये थे । गुरुदेव विश्वभारती को विश्व - साहित्य और संस्कृति के अध्ययन का केन्द्र बनाना चाहते थे, उनके इसी प्रयास के फलस्वरूप मेरे अध्ययनकाल जुलाई, 1935 से मार्च, 1937 के दौरान ही वहाँ 'चीनी भवन' की स्थापना हो गयी थी और चीनी विद्वान् आचार्य तान यान शान के मार्गदर्शन में पढ़ने-पढ़ाने का काम शुरू हो गया था। गुरुदेव विश्वभारती में 'हिन्दी भवन' की स्थापना के लिये भी बहुत आतुर थे । 'विशाल भारत' के सम्पादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के संयोजन में इस दिशा में जोरदार प्रयास शुरू हो गये। जनवरी 37 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू बंगाल- विधानसभा के चुनाव प्रचार के सिलसिले में जब शांतिनिकेतन आये, तो हमारा एक शिष्टमंडल इस कार्य में सहयोग प्रदान करने के लिए उनसे भी मिला था। मेरे समय में तो यह कार्य पूरा नहीं हो सका, पर गुरुदेव के जीवनकाल में ही शांतिनिकेतन में 'हिन्दी भवन' स्थापना की उनकी अभिलाषा भी पूरी हो गयी । शांतिनिकेतन में उस समय विदेशों के अलावा देश के हर सूबे से छात्र पढ़ने के लिये पहुँचते थे। इंडोनेशिया के दो छात्र तो मेरे सहपाठी ही थे । उदयपुर के आज के प्रतिष्ठित चित्रकार गोवर्धन जोशी और कलाम, तब कलाभवन के छात्र थे, बहुचर्चित कन्नड़ फिल्म 'संस्कार' के निर्माता-निर्देशक आंध्र प्रदेश के टी. पी. रामारेड्डी भी मेरे सहपाठी थे। आज की प्रतिष्ठित लेखिका शिवानी (गौरा पांडे ) तथा जयपुर की राजमाता गायत्री देवी (कूचबिहार की राजकुमारी आयशा ) तब वहाँ स्कूल की छात्राएँ थीं । गुरुदेव की साहित्य व कला क्षेत्र की उपलब्धियाँ तो विश्वविख्यात हैं, पर राष्ट्रीय आन्दोलन में उनका प्रत्यक्ष व परोक्ष योगदान भी कम नहीं रहा। 13 अप्रैल, 1919 को जालियांवाला बाग के नृशंस नरमेध के विरोध में उन्होंने एक आक्रोशभरा पत्र लिखाकर अपना 'सर' का खिताब वापस लौटा दिया था । किन्तु वे विश्वभारती को अपनी ठोस एवं सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि मानते थे, जहाँ वे अंतिम सांस तक अपने जीवन के परम लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना एवं भाईचारा, विश्वशांति और पूरब पश्चिम को नजदीक लाने के प्रयास में जुटे रहे। —('साभार, सजग समाचार, अगस्त ( प्रथम ) 1998, पृष्ठ 3-7 ) 124 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2003 (संयुक्तांक )
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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